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March 28, 2025
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कर्मों का आश्रव निरंतर होता रहता है,आचार्य श्री समयसागर जी महाराज

कर्मों का आश्रव निरंतर होता रहता है,आचार्य श्री समयसागर जी महाराज
कुंडलपुर दमोह ।सुप्रसिद्ध सिद्ध क्षेत्र कुंडलपुर में युग श्रेष्ठ संत शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के परम प्रभावक शिष्य परम पूज्य आचार्य श्री समय सागर जी महाराज ने मंगल प्रवचन देते हुए कहा शरीर में कर्म के उदय से व्याधि आ जाती है और उस रोग व्याधि का निष्कासन भी औषधि उपचार के माध्यम से हो जाता है। निष्कासन महत्वपूर्ण नहीं है बहुत जल्दी रोग से मुक्त हो सकता है किंतु रोग जो आया है वह किस द्वार से आया है उसका परीक्षण हमें करना है ।नहीं तो बार-बार व्याधि होती है और औषधि लेते हैं। क्योंकि औषधी दान का प्रावधान तो है ही आगम में हम दवाई लेते चले जाएंगे किंतु रोग का निष्कासन इसलिए नहीं होगा। जिस द्वार से रोग का प्रवेश हो रहा है उस द्वार को बंद नहीं कर पा रहे हैं ।दवाई बिल्कुल अच्छी क्वालिटी की है डॉक्टर भी अच्छा है दवाई भी राम बाण है किंतु पथ्य का पालन होना भी उसके साथ होना आवश्यक है। परहेज नहीं रखेंगे तो रोग बढ़ेगा ।औषधि के द्वारा रोग बढ़ रहा है ऐसा नहीं है वह आहार के द्वारा ही रोग आया है आहार के अलावा और बहुत सारे निमित्त हो सकते हैं। निमित्तों की ओर ध्यान देने की आवश्यकता है ।उसी प्रकार मोक्ष मार्ग में भी कर्मों का आश्रव निरंतर होता रहता है।किंतु वह आश्रव अपने आप नहीं होता अपने आप आश्रव नहीं होता अपने आप बंध नहीं होता है ।यदि अपने आप आश्रव हो जाता तो अपने आप ही आश्रव का रोकना भी हो जाएगा ।आश्रव निर्जरा संवरा ऐसा सूत्र बनाने की क्या आवश्यकता ।आश्रव होता बुद्धि पूर्वक भी होता है अबुद्धि पूर्वक भी आश्रव होता है। अबुद्धि पूर्वक जो आश्रव है उसको रोकने का प्रावधान अलग है उसको पुरुषार्थ के माध्यम से नहीं रोका जाता वह ऑटोमेटिक रुकता है कब रुकता है कहां रुकता है इसकी चर्चा हम बाद में करेंगे ।अभी बुद्धि पूर्वक जो आश्रव हो रहा है या बंध हो रहा है उस बंध की परंपरा को रोकना है ।तो बंध जो हो रहा है वह बिना हेतु के संभव नहीं है। बिना हेतु के बंध हो जाए तो आचार्य उमा स्वामी महाराज अष्टम अध्याय में प्रथम सूत्र दे रहे हैं उसकी कोई आवश्यकता नहीं। बिना कारण के बंध होता नहीं तो पहले कारण की ओर ध्यान देने की आवश्यकता है। तो शुभ और अशुभ आश्रव होता है अथवा पुण्य और पाप का आश्रव होता है तो उसके लिए मन वचन काय की कुछ ऐसी चेष्टाएं हैं जिनसे पाप का आश्रव होता है ।और ठीक इसके विपरीत आत्मगत कुछ उज्ज्वल कुछ आत्मगत परिणाम होते हैं पवित्र परिणाम होते हैं जिनके फलस्वरूप पुण्य का भी आश्रव होता है तो क्रम है। गुरुदेव का यह कहना है कि कर्म का जो आश्रव होता है उसकी निर्जरा हमें करनी है। किंतु क्रम से निर्जरा होगी पाप कर्म की निर्जरा ओर पुण्य कर्म की निर्जरा इसमें क्रम है। पाप पहले मिटता है ।पाप प्रथम मिटता प्रथम तजो पुण्य फल भोग। पुनः पुण्य मिटता धरो आत्म निर्मल योग ।यह दोहा गुरुदेव ने सामने रखा है पाप प्रथम मिटता पाप का बंध हुआ है तो पाप पहले क्षय होगा पुण्य बाद में क्षय होगा ।मोक्ष मार्ग में पुण्य बाधक नहीं है ।कुछ लोगों की धारणा हो सकती है। स्वाध्याय शील होते हुए भी इस विषय में वह अनभिज्ञ रहे हैं उन्हें ज्ञात कर लेना चाहिए कि पाप का क्षय और पुण्य का क्षय करना है पाप और पुण्य यह दोनों इक्वल हैं दोनों समान है ।कहा भी है आगम में कुंदकुंद देव ने कहा चाहे लोहे की बेड़ी हो चाहे स्वर्ण की बेड़ी हो बेड़ी तो बेड़ी है ।बंधन तो बंधन है बंधन किसको ईस्ट है संसार से मुक्त होना चाहता है प्रत्येक संसारी प्राणी हम बंधन से मुक्त होना चाहते महाराज इसलिए चाहे पाप हो चाहे पुण्य हो दोनों को एक तराजू में तोल लेते हैं वह ठीक नहीं माना जाता ।पुण्य और पाप दोनों बेड़ी तो हैं जो संसार में प्रवेश करता है वह सुशील कैसे हो सकता है ।यह कहा कुंद कुंद स्वामी ने उस गाथा को आप लेकर बैठ गए।

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