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April 19, 2024
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सिसकती प्राथमिक शिक्षा , पं.सुशील शर्मा की कलम से

सिसकती प्राथमिक शिक्षा

प्राथमिक शिक्षा ही किसी व्यक्ति के जीवन की वह नींव होती है, जिस पर उसके संपूर्णजीवन का भविष्य तय होता है।
जीन पियाजे ने शिक्षा के उद्देश्य के बारे में अपने विचार रखते हुए लिखा था, “शिक्षा का सबसे प्रमुख कार्य ऐसे मनुष्य का सृजन करना है जो नये कार्य करने में सक्षम हो, न कि अन्य पीढ़ियो के कामों की आवृत्ति करना। शिक्षा से सृजन, खोज और आविष्कार करने वाले व्यक्ति का निर्माण होना चाहिए।”
विश्व बैंक ने 1986 की शिक्षा नीति को आधार बनाकर निशाना साधा और अलग-अलग हैसियत के मान से बच्चों को अलग-अलग स्तर की शिक्षा दिये जाने की वकालत की । नई-नई योजनाओं के नाम पर शनै:-शनै: समानांतर संरचनाओं की रचना की जाती रही यानि हाथ खींचने की नई तकनीकें। अतएव इन सब थपेडों में उलझी शिक्षा, वर्तमान में अपने मूल स्वरूप से कहीं और है।
दुख इस बात का है कि शिक्षा का अधिकार अधिनियम-2009, 1अप्रैल,2010 से प्रभावी तौर पर लागू है और इस अधिनियम को लागू हुए चार साल हो गए,लेकिन शिक्षा को लेकर जो हमारा सपना था वो कहीं भी रूप लेता नहीं दिख रहा। हम वहीं खड़े हैं,जहां से चले थे,अगर कुछ बदला है तो वह केवल समय और यही समय आज सवाल पूछ रहा है कि आखिर शिक्षा की दुर्दशा का जिम्मेदार कौन है?कुछ अपवादों को छोड़ दें, तो देश के ज्यादातर प्राथमिक स्कूलों के बुरे हाल हैं। इन स्कूलों की मुख्य समस्या विद्यार्थियों के अनुपात में शिक्षक का न होना है। अगर शिक्षक हैं भी, तो वे काबिल नहीं। शिक्षकों की तो बात ही छोड़ दीजिए, ज्यादातर स्कूलों में बुनियादी सुविधाएं भी न के बराबर हैं।कहीं स्कूल का भवन नहीं है। भवन है तो अन्य कई बुनियादी सुविधाएं नहीं हैं। ये सब हैं, तो शिक्षक नहीं हैं।शिक्षा अधिकार अधिनियम के मुताबिक स्कूलों में ढांचागत सुविधाएं मुहैया कराने के लिए 2102 तक का वक्त तय किया गया था। गुणवत्ता संबंधी शर्तें पूरी करने के लिए 2015 की समय-सीमा रखी गई। मगर कानून के मुताबिक न तो स्कूलों में शिक्षकों की नियुक्ति हुई है और न ही बुनियादी सुविधाओं का विस्तार हुआ है। इससे समझा जा सकता है कि शिक्षा अधिकार अधिनियम को हमारी सरकारों ने कितनी गंभीरता से लिया है।
मध्यप्रदेश की प्राथमिक शिक्षा स्थिति
बच्चों के लिए काम करने वाली अंतर्राष्ट्रीय संस्था यूनिसेफ द्वारा होशंगाबाद जिले के पचमढ़ी में ‘सोशल मीडिया और शिक्षा’ विषय पर आयोजित एक दिवसीय कार्यशाला में जो तथ्य सामने आए हैं, वे राज्य की शिक्षा व्यवस्था का खुलासा करने के लिए पर्याप्त हैं।
सरकारी आंकड़े बताते हैं कि राज्य में कुल एक लाख 14 हजार 444 सरकारी विद्यालय हैं, इनमें प्राथमिक व माध्यमिक विद्यालय शामिल हैं। इन विद्यालयों में छह से 13 वर्ष की आयु के कुल एक करोड़ 35 लाख 66 हजार 965 बच्चे पढ़ते हैं। सितंबर 2014 में आई यू-डाइस (एकीकृत जिला शिक्षा सूचना प्रणाली) के आंकड़े बताते हैं कि राज्य के 5,295 विद्यालय ऐसे हैं, जिनमें शिक्षक ही नहीं है।
राज्य में शिक्षा का अधिकार लागू होने के पांच साल बाद की शालाओं की बदहाली की कहानी यहीं नहीं रुकती। एक तरफ जहां शिक्षक विहीन विद्यालय हैं, वहीं 17 हजार 972 विद्यालय ऐसे हैं जो एक शिक्षक के भरोसे चल रहे हैं। 65 हजार 946 विद्यालयों में तो महिला शिक्षक ही नहीं है।वर्तमान में प्रदेश में प्राथमिक स्तर पर प्रति 48 तथा माध्यमिक स्तर पर प्रति 36.8 द्यार्थियों पर एक शिक्षक की उपलब्धता है। अतएव प्राथमिक स्तर पर यह अनुपात 18 की संख्या में अधिक है यानि 50 प्रतिशत से ज्यादा, जबकि प्राथमिक स्तर ही बच्चों को व्यक्तिगत रूप से ध्यान दिये जाने की आवश्यकता है। इसके अलावा प्रदेश की 52.52 प्रतिशत यानि 12,760 माध्यमिक शालाओं के पास अपना स्वयं का भवन नहीं है तथा प्रदेश की 2.70 प्रतिशत यानि 2197 प्राथमिक शालाओं के पास अपना स्वयं का भवन नहीं है। एक नजर मूलभूत सुविधाओं पर भी दौड़ानी आवश्यक है। आज प्रदेश की प्राथमिक व माध्यमिक स्तर की क्रमश: 48900 (60.12 प्रतिशत) तथा 15413 (63.44 प्रतिशत) शालाओं में खेल का मैदान नहीं है। प्रदेश की 24.63 प्रतिशत प्राथमिक शालाओं तथा 63.44 प्रतिशत् माध्य. शालाओं में पेयजल की अनुपलब्धता है सके चलते बच्चों को या तो अपने कांधे पर बॉटल लेकर जाना होता है या फिर प्यासे ही पढ़ना पड़ता है। यह समस्या अधिकतर ग्रामीण क्षेत्रों में है जिससे यह भी स्पष्ट है कि इस समस्या से अधिकाधिक रूप से गरीब व वंचित वर्ग के बच्चों को ही दो-चार होना पड़ता है। इसी प्रकार प्रदेश की 47.98 प्रतिशत प्राथ. शालाओं तथा 59.20 प्रतिशत माध्य. शालाओं में शौचालयों की अनुपलब्धता है साथ ही इसी से जुड़ी एक और समस्या वह यह कि बालिका शिक्षा प्रोत्साहन को लेकर बड़े-बड़े दावे करने वाले इस राज्य में प्राथमिक व माध्यमिक स्तर की क्रमष: 56866 (69.91 प्रतिशत) तथा 15413 (63.44 प्रतिशत) शालाओं में बालिकाओं के लिये पृथक से शौचालय की व्यवस्था नहीं है।

देश की बदहाल प्राथमिक शिक्षा
असर” 2014 (एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट) के अनुसार भारत में निजी स्कूल जाने वाले बच्चों का प्रतिशत 51.7 फीसदी हो गया है, 2010 में यह दर 39.3 फीसदी थी। रिपोर्ट के अनुसार जहां वर्ष 2009 में कक्षा3 के 5.3% बच्चे कुछ भी पाठ नहीं पढ़ सकते थे, वहीँ 2014 में यह अनुपात और बढ़ कर 14.9 प्रतिशत हो गया है। इसी तरह से 2009 में कक्षा 5 के 1.8% बच्चे कुछ भी पाठ नहीं पढ़ सकते थे, 2014 में यह अनुपात और बढ़ कर 5.7 प्रतिशत हो गया है। गणित को लेकर भी हालत बदतर हुई है, रिपोर्ट के अनुसार 2009 में कक्षा 8 के 68.7% बच्चे भाग कर सकते थे, लेकिन 2014 में यह स्तर कम होकर 44.1 प्रतिशत हो गयी है। रिपोर्ट के अनुसार भारत में कक्षा आठवीं के 25 फीसदी बच्चे दूसरी कक्षा का पाठ भी नहीं पढ़ सकते हैं। राजस्थान में यह आंकड़ा 80 फीसदी और मध्यप्रदेश में 65 फीसदी है। इसी तरह से देश में कक्षा पांच के मात्र 48.1 फीसदी छात्र ही कक्षा दो की किताबें पढ़ने में सक्षम हैं। अंग्रेजी की बात करें तो आठवीं कक्षा के सिर्फ 46 फीसदी छात्र ही अंग्रेजी की साधारण किताब को पढ़ सकते हैं। राजस्थान में तो आठवीं तक के करीब 77 फीसदी बच्चे ऐसे हैं, जो अंग्रेजी का एक भी हर्फ नहीं पहचान पाते, वही मध्य प्रदेश में यह आकड़ा 30 फीसदी है।
यू नेस्को द्वारा दुनिया भर में प्राथमिक शिक्षा की दशा-दिशा का जायजा लेने वाली जारी की गई सालाना रिपोर्ट में भारत में बुनियादी शिक्षा के कार्यक्रमों और अभियानों- जैसे शिक्षा का अधिकार कानून और सर्वशिक्षा अभियान के नतीजों को सकारात्मक बताते हुए कहा गया है कि भारत ने बच्चों को स्कूल भेजने के मानक पर दुनिया में सबसे तेज प्रगति की। रिपोर्ट के अनुसार जहां भारत में स्कूलों से बाहर रहने वाले बच्चों की संख्या साल 2000 में 2 करोड़ थी तो वहीं साल 2006 में ये संख्या घटकर 23 लाख और साल 2011 में 17 लाख रह गई। हालांकि इस उल्लेखनीय प्रगति के बाद भी भारत स्कूलों से बाहर रहने वाले बच्चों की संख्या के आधार पर तैयार की गई सूची में नीचे से चौथे पायदान पर है।
आंकड़े बताते हैं कि देश के 31 प्रतिशत प्राथमिक विद्यालयों में लड़कियों के लिए शौचालय की व्यवस्था नहीं है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय की बेबसाइट पर पड़े आकड़ों पर नजर डालें तो अभी तक केवल 69 फीसदी विद्यालयों में ही शौचालय की व्यवस्था है। ग्रामीण वातावरण को देखते हुए इस समस्या के कारण अभिभावक लड़कियों को स्कूल जाने से रोक देते हैं, जिससे लड़कियों की पढ़ाई बीच में ही रुक जाती है और वे शिक्षा से वंचित हो जाती हैं।मध्याह्न भोजन से चौपट होती पढ़ाई !
यह स्थिति तब भी बनी हुई है जबकि आज देश में शिक्षा का अधिकार कानून लागू हो चुका है और आम जनता में शिक्षा के महत्व को लेकर जागरूकता बढ़ती जा रही है. आज ग्रामीण क्षेत्रों में भी लोग अपने बच्चों को ऊंची से ऊंची शिक्षा दिलाने की ख्वाहिश रखने लगे हैं। नए भारत की यह तस्वीर है कि ग्रामीण लड़कियां अब सिर्फ घर के कामों में हाथ नहीं बंटा रहीं, बल्कि वे साइकिल पर बैठ कर स्कूल की तरफ जा रही है. लेकिन हमारे सामने बड़ा सवाल यह है कि हम देश में जैसी शिक्षा दे रहे हैं, क्या वह गुणवत्तापूर्ण है? यह प्रश्न शिक्षा व्यवस्था के प्रति प्राप्त उन तमाम नकारात्मक आंकड़ो के आलोक में उठना वांछित है।
दोषी कौन ?
प्राथमिक विद्यालयों की शिक्षा की बद से बदतर हालत के लिए कुछ हदतक हमारा समाज भी जिम्मेदार है। इसे दुर्भाग्य ही कहेंगे कि देश के अधिकतर अभिभावक मौजूदा दौर को देखते हुए अपने बच्चों को तो अंग्रेजी माध्यम या फिर मिशनरी स्कूल में पढ़ाना चाहते हैं,लेकिन ठीक इसके विपरीत अभिभावक स्वयं प्राथमिक स्कूल में पढ़ाना चाहते हैं। इसके पीछे कारण है, क्योंकि प्राथमिक स्कूल में पढ़ाई के अलावा और सभी कार्य होते हैं और आप दबाव वाले हैं तो घर बैठ कर सरकारी पैसों पर मौज कर सकते हैं। बच्चों को वे यहां इसलिए नहीं पढ़ाते क्योंकि यहां पढ़ाई न के बराबर होती है। ऐसे में वे अपने बच्चों को जो बनाना चाहते हैं वह इन परिस्थितियों में रहकर बना नहीं सकते। क्योंकि अंगे्रजी एवं मिशनरी स्कल में शिक्षा का जो अत्याधुनिक रूप है उसके सामने गावों की प्राथमिक शिक्षा कहीं भी नहीं टिकती।
सरकार ने मध्याह्न भोजन योजना इसलिए चलाई थी कि गरीब बच्चों को पोषकतत्व युक्त भोजन मिलेगा, जिससे उनके शारीरिक एवं मानसिक विकास में वृद्धि होगी। पर हकीकत में इस योजना से नुकसान ज्यादा हो रहा है। असल में सरकार बच्चों के शारीरिक एवं मानसिक विकास के लिए प्राथमिक व उच्च प्राथमिक बच्चे के लिए 100 से 150 ग्राम प्रतिदिन मीनू के अनुसार भोजन की व्यवस्था करती है, लेकिन जब अध्यापकों से इस योजना पर राय जानी तो उन सभी का मानना है कि यह योजना पूरी तरह से दलाली और भ्रष्टाचारियों के चुंगुल में फंसी है और इससे बच्चों की पढ़ाई पूरी तरह बर्बाद हो रही है। बच्चे पढ़ने के लिए कम सिर्फ भोजन के समय खाने में ज्यादा रुचि दिखाते हैं। ज्यादातर विद्यालयों में तैनात एक दो अध्यापक पल्स पोलियो, जनगणना, चुनाव जैसे तमाम गैर शैक्षिक कार्यों में लगे रहते हैं और बाकी समय बच्चों के मध्याह्न भोजन में।
देश में प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था की गुणवता में कमी की एक प्रमुख वजह यह भी है कि इसका जिम्मा राज्य सरकारों पर छोड़ दिया गया है. यही वजह है कि कई राज्यों में तो 1986 के पुराने पड़ चुके पाठ्यक्रमो को आज भी चलाया जा रहा है। कोई भी आसानी से समझ सकता है कि वर्तमान प्रतिस्पर्धा का सामना इन पुराने पाठ्यक्रमों से नहीं होने वाला है. देश के नीति-नियंता इस बात से अच्छी तरह अवगत हैं कि शिक्षा को उन्नत स्तर का बनाकर ही हम एक स्वस्थ लोकतांत्रिक व विकसित देश के रूप में प्रतिष्ठित हो सकते हैं, परन्तु इच्छाशक्ति का अभाव व कुछ राजनीतिक स्वार्थों के शिक्षा से खिलवाड़ हो रहा है।

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