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April 20, 2024
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जीवन को गति नहीं, प्रगति देना है,मुनि श्री निरंजन सागर जी महाराज

*जीवन को गति नहीं, प्रगति देना है*

* मुनि श्री निरंजन सागर जी महाराज*

कुंडलपुर ।”साइंस ऑफ लिविंग” का आनंद वही ले सकता है जो इस जीवन विज्ञान के रहस्य को समझने के लिए कमर कस कर बैठा हो। चलते रहना गति है और आगे बढ़ना प्रगति है ।जैसे कोल्हू का बैल चलता रहता है परंतु आगे नहीं बढ़ता है उसे गतिमान ही कहा जा सकता है, प्रगतिमान नहीं कहा जा सकता ।कोई भी जीव भ्रमण करें परंतु अपने लक्ष्य तक ना पहुंचे तो उसका यह गति करना ,घूमना ,शक्ति व समय दोनों की बर्बादी है। वह जीव गति तो कर रहा है परंतु प्रगति नहीं कर रहा है ।अपने लक्ष्य की ओर बढ़ना ही प्रगति है। केवल भ्रमण करना प्रगति नहीं ।इसी प्रकार कोई जीव चारों गतियों में खूब घूमे परंतु अपने लक्ष्य सिद्धि की ओर ना बड़े तो उसका यह घूमना भव भ्रमण है ,प्रगति करना नहीं है। संसार के सभी प्राणी शांति चाहते हैं ,सुख चाहते हैं ,किसी भी प्राणी की मांग अशांति की दुख की नहीं है ,अर्थात जो संसार भ्रमण करावे वह गति है और जो संसार से निवारण करावे वह प्रगति है। इससे यह स्पष्ट है कि सभी प्राणियों का लक्ष्य सुख, शांति प्राप्त करना है ।दुख अशांति से छुटकारा पाना है। वस्तुतः जो सभी प्राणियों को हमेशा प्रिय है वहीं लक्ष्य है।सभी प्राणियों को सुख अभीष्ट है ,पसंद है ।इसलिए सभी प्राणी सुख पाने के लिए निरंतर प्रयत्नशील हैं। उनका सारा कार्यकलाप सुख।पाने के लिए है ।वे जो भी प्रवृति करते हैं उसके पीछे उनका लक्ष्य सुख पाना ही है ।यदि वर्तमान में सुख विद्यमान होता अर्थात सुख का अभाव ना होता तो सुख पाने की कामना ही उत्पन्न नहीं होती। पाने की इच्छा उसी की होती है जो अभी प्राप्त नहीं है ।आचार्य कहते हैं “दुख मेव वा”अर्थात संसार दुख रूप ही है ।कहते भी हैं “कहूँ ना सुख संसार में सब जग देखो छान “ना तो इस संसार में सुख है और ना तो इस संसार में कोई सुखी है ।फिर भी संसारी प्राणी उस सांसारिक सुखों की पूर्ति में दिन-रात लगा है ।बारह भावनाओं में आप लोग पढ़ते हैं “जो संसार विषय सुख होता तीर्थंकर क्यों त्यागै?। “तीर्थंकरों ने भी अपने आत्मिक सुख के लिए, वास्तविक सुख के लिए ,इस संसार का त्याग कर दिया तो आप और हम किस खेत की फसल है ।त्याग से ही लक्ष्य की प्राप्ति ,सुख की प्राप्ति होती है। अतः त्याग में ही प्रगति है प्रवृत्ति में नहीं। भोगों को आचार्यों ने एक असाध्य रोग कहा है। भोग प्रवृत्ति के द्वारा आज तक कोई भी अपने लक्ष्य को साध्य को नहीं पा सका है ।यह तो ऐसा है जैसे क्षितिज अर्थात जहां धरती आकाश मिलते दिखाई देते हैं वहां तक पहुंचने के लिए कोई गति करता है चलता है वह चाहे कितना भी चले उससे क्षितिज की दूरी मैं कमी नहीं आती ,वह दूरी ज्यों की त्यों रहती है। उसे अपने लक्ष्य की ओर आगे बढ़ने का भ्रम ही होता है ,आगे नहीं बढ़ता है। अतः उसका चलना प्रगति करना नहीं है ।मुक्त होने के लिए स्व( अपने आत्म तत्व) की ओर बढ़ना होता है। स्व की ओर गति तभी संभव है जब पर (संसार) की ओर गति करना बंद करें, पर से विमुख हो। अपने आत्म तत्व की ओर गति करना ही लक्ष्य की ओर बढ़ना है, प्रगति करना है ।हम सभी को अपने गतिमान जीवन को प्रगति मान जीवन बनाना है ताकि हम सभी अपने लक्ष्य को प्राप्त हो।

जयकुमार जैन जलज

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