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April 25, 2024
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सामाजिक

नारी दिवस पर दो कविताएँ (मेरी भूमिका , में वो नहीं )

नारी दिवस पर दो कविताएँ

1

मेरी भूमिका

सुशील शर्मा

 

सृष्टि के प्रथम सोपान से

आज के अविरल विकास महान तक।

मेरी भूमिका का संदर्भ

अहो प्रश्न चिन्ह कितना दुःखद।

 

सनातन संस्कृति का आरंभ

सृष्टि के प्रथम बीज का रोपण

मेरी गर्भनाल से प्रारम्भ।

आदि मानव की संगनी से लेकर

व्यस्ततम प्रगति सोपानों तक

मेरी भूमिका का संदर्भ

अहो प्रश्न चिन्ह कितना दुःखद।

 

ऋग्वेद से लेकर बाज़ारीकरण तक

कितनी अकेली मेरी अंतस यात्रा

हर समय सिर्फ त्याग और बलिदान।

न जी सकी कभी अपना काल

सदा बनती रही पूर्ण विराम।

विकास के अविरल पथ पर

मेरी भूमिका का संदर्भ

अहो प्रश्न चिन्ह कितना दुःखद।

 

मैं दुर्गा गार्गी मैत्रयी से लेकर

वर्तमान की अत्याधुनिक वेषधारी

कितनी असहनीय अमानवीय यात्रओं को सहती।

मेरे तन ने अनेक रूप बदले

मन लेकिन वही सात्विक शुद्ध

मानवीय मूल्यों को समेटे

नित नए संकल्पों में विकल्प ढूँढती

मेरी भूमिका का संदर्भ

अहो प्रश्न चिन्ह कितना दुःखद।

 

क्षितिज के पार महाकाश दृश्य

शब्दों सी स्वयं प्रकाशित स्वयं सिद्ध

काल की सीमाओं से परे मेरा व्यक्तित्व।

देश नही विश्व निर्माण में मेरा अस्तित्व।

मेरी भूमिका का संदर्भ

अहो प्रश्न चिन्ह कितना दुःखद।

 

हर युग हर काल में मेरा रुदन

विरोधाभास और विडम्बनाएं गहन

अंतस में होता हमेशा मेरे नव सृजन

हर देश हर काल का विकास पथ

है मेरे इतर शून्यतम।

मेरी भूमिका का संदर्भ

अहो प्रश्न चिन्ह कितना दुःखद।

 

2

मैं वो नहीं

सुशील शर्मा

 

सपने भी सहमे हैं मेरे

कल्पनाओं में क्रांति है।

सन्नाटे के सृजन में

सब मैंने बुना

तुमने सिर्फ गाँठ बाँधी

और सब कुछ तुम्हारा था।

शब्दों की अंतरध्वनियों

में गूँजते मेरे सवाल

तुमने कभी नही सुने।

साँचे-ढले समाज की

अकम्पित निर्ममता

हब्बा से आज तक

छलती रही मुझे

और तुम बने रहे भगवान

हांकते रहे मुझे

उनींदी भोर से सिसकती रात तक

उड़ेलते रहे

अपने अस्तित्व का जहर

प्यार का नाम देकर।

हाँ तुमने गहा था मुझे

लेकिन मुझे छोड़ कर

साथ ले गए सिर्फ मेरी देह

उस देह से तुमने उपजा लिए

अनगिन रिश्ते

जिह्वा ललन लालसाएं

मैं तो अभी भी बैठी हूँ

वहीँ अकेली ,अधूरी

अंतहीन ,अनकही।

 

विश्व महिला दिवस पर मातृशक्ति को समर्पित।

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