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May 16, 2025
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धरती की डायरी: सृष्टि से संकट तक ( नाटक – सुशील शर्मा) भूमिका :

धरती की डायरी: सृष्टि से संकट तक

( नाटक – सुशील शर्मा)

भूमिका :

 

(नेपथ्य में धीमी पृथ्वी की धड़कनों जैसी गूंजती ध्वनि। मंच पर अंधकार। केवल एक प्रकाश बिंदु केंद्र में। वाणी सुनाई देती है:)

 

वाणी: मैं पृथ्वी हूँ —हे मानव मैं तुम्हारे जन्म से पूर्व भी थी और प्रलय के पश्चात भी रह जाऊँगी। मैंने अग्नि से आकार लिया, जल से जीवन और वायु से गति पाई। आज मैं बोलना चाहती हूँ — अपने जन्म की कथा, अपने विकास की गाथा, और उस पीड़ा की पुकार जो मैंने सहकर भी कभी शब्दों में नहीं कही। यह नाटक मेरी आत्मकथा है — एक चेतावनी, एक याचना, और एक नया संकल्प। क्या तुम सुन सकोगे मेरी धड़कनों में दबी पुकार? यदि हाँ — तो सुनो… “मैं पृथ्वी हूँ: एक करुण पुकार।”

 

 

*दृश्य 1: पृथ्वी की उत्पत्ति*

 

स्थान: अंतरिक्ष की गहराइयाँ, आग और धूल के बादल

 

नेपथ्य प्रभाव: विस्फोट, ब्रह्मांडीय गूंज, प्रकाश की झिलमिलाहट

 

पृथ्वी (गर्भ से): मैं एक आग का गोला थी — अशांत, अनगढ़, आकारहीन। मेरे भीतर उथल-पुथल थी, जैसे कोई मुझे जन्म देना चाहता हो। अंधकार में मेरी पहली चीख थी ज्वालामुखी की ज्वाला, और पहली सांस थी बिखरे कणों की आवृत्त रूप। मैं अस्तित्व में आ रही थी — प्रकृति की इच्छा से।

 

अंतरिक्ष (नेपथ्य वाणी): मैं मौन हूँ, फिर भी सृष्टि का पहला शब्द हूँ। तेरा उदय मेरी कोख से हुआ है — तुझमें मेरी ही धूल, मेरी ही ऊर्जा है। जब तू थमी, तो वक़्त ने चलना सीखा। अब तेरा हर स्पंदन ब्रह्मांड की लय है।

 

पृथ्वी: आपको प्रणाम प्रभु मैंने अपने शरीर को जमने दिया, ज्वालाओं को शांत होने दिया। मेरी आग से धीरे-धीरे ठोस भूमि बनने लगी, और फिर मेरे गर्भ में पानी की एक बूंद टपकी। वहीं से शुरू हुआ जीवन का पहला स्वप्न — और मेरी मातृत्व की शुरुआत। वह क्षण ब्रह्मांड के लिए छोटा था, पर मेरे लिए अमर हो गया।

 

जल (ध्वनि में गूँज): मैं आया — शीतल, चंचल, जीवन का बीज लेकर। मैंने तेरे सीने पर बहना शुरू किया, तेरी दरारों में भरकर उन्हें स्पंदित कर दिया। तेरे सूने विस्तार में लहरें उठीं, और मैं तुझसे गहराई मांगने लगा। मेरा प्रवाह ही तेरा भविष्य बन गया।

 

वायु (तेज फुसफुसाती आवाज में): मैं तुझ पर छा गई — अदृश्य होकर भी हर जगह उपस्थित। मैंने तेरे जीवन को गति दी, तुझे स्पंदन दिया। मुझमें ही पहली सांस पनपी, और तुझमें लय आ गई। तू अब शून्य नहीं — तू जीवित है।

 

पृथ्वी: मैं थरथराई, पर रुकी नहीं। मैं टूटी, पर समेटती गई खुद को। मैं बनी — एक धड़कता हुआ ग्रह, एक संभावनाओं का संसार। अब मैं तैयार हूँ… जीवन के पहले बीज को अंकुरित करने के लिए।

 

*दृश्य 2: शनैः शनैः विकास*

 

स्थान: पृथ्वी की सतह — सागर, ज्वालामुखी, हरे-भरे द्वीप

 

नेपथ्य प्रभाव: पक्षियों की हल्की आवाज़ें, जल का प्रवाह, धीमे संगीत में जीवन की धड़कनें

 

पृथ्वी: मेरे गर्भ में पहली बार जीवन ने करवट ली — एक सूक्ष्म कोशिका के रूप में। वह छोटी सी हलचल मेरे भीतर उत्सव बन गई। मैंने उसे पोषित किया, दिशा दी, और वह जल में तैरते-तैरते विकसित होने लगा। एक अदृश्य चक्र शुरू हो गया — विकास का, अनवरत गति का।

 

जीव कोशिका: मां,मैं आया अज्ञात से, पर तुझमें ही अपना घर पाया। तेरे समुद्र मेरे पालने बने और तेरा अंधकार मेरी आँखें। मैंने सीखा — विभाजन, अनुकूलन और संतुलन। हर बार तेरी छांव में मैं कुछ नया बनता गया।

 

पृथ्वी: तुम्हारी गति से मेरा भी अस्तित्व चमत्कृत होने लगा। प्राणी आकार लेने लगे — कुछ जल में, कुछ भूमि पर। कुछ ने पंख फैलाए, तो कुछ ने पंख गिराकर पैरों को अपनाया। तुम मेरे श्रम और धैर्य की प्रतिमूर्ति बनते गए।

 

जलचर: तेरे जल ने मुझे लहरों में पालना दिया, दिशा दी। हर दिन एक संघर्ष था, और हर संघर्ष में तुझसे शक्ति मिलती रही। मैंने तुझसे सीखकर रूप बदला, जीवन को फैलाया। मैं तेरी जिजीविषा का प्रतीक हूँ।

 

थलचर: जब मैं जल से निकला, तो पहली बार तेरी मिट्टी को छुआ। वह क्षण क्रांति जैसा था, जैसे जीवन ने नया अध्याय खोला। तू धूल थी, पर मेरे लिए आधार बन गई। तेरे पर्वत, मैदान, वन मुझे दिशा देने लगे।

 

वृक्ष: मैं तेरे वक्ष से उग आया — जड़ों से तुझमें बंधा, शाखाओं से आकाश को छूता। मैंने वायु को स्वच्छ किया, जीवों को आश्रय दिया। तेरे भीतर की ऊर्जा मुझमें बहने लगी। मैं तेरा स्तंभ बन गया — जीवन का आधार।

 

पृथ्वी: मैंने देखा जीवन को आकार लेते, क्रमिक विकास करते। मुझे गर्व था, क्योंकि हर प्राणी में मेरा अंश था। जीवन रंगों से भर गया — विविधता, सौंदर्य और गति से। मैंने चुपचाप हर प्रक्रिया को संभव बनाया।

 

वायु: मैंने उन जीवों में सांसें भरीं, उन्हें दिशा दी। मेरा प्रवाह अब जीवन के साथ जुड़ गया। मैंने उन्हें उड़ना सिखाया, दौड़ना सिखाया। मैं हर विकास का मौन साथी बनी।

 

पृथ्वी: विकास एक नदी की तरह था — बहती, मुड़ती, आगे बढ़ती। हर मोड़ पर जीवन ने नया रूप लिया। मुझे अपने अस्तित्व पर गर्व होने लगा। पर क्या मैं जानती थी कि यह विकास एक दिन विनाश का संकेत भी बन सकता है?

 

*दृश्य 3: मानव विकास की गाथा*

 

स्थान: आदिम मनुष्य का गांव, आग के चारों ओर बैठी मानव सभ्यता

 

नेपथ्य प्रभाव:

 

ध्वनियाँ: आग की फड़कती आवाज, जंगली जानवरों की दूर से आती आवाज़ें, आदिम मनुष्य की गूंजती बातें।

प्रकाश: धीमे-धीमे जलते अंगारे, आग की लपटों में एक नई आशा का संकेत।

 

मानव (आदिम रूप में, अपने साथियों से बात करते हुए):

देखो, हम अब अपनी पहली शुरुआत कर रहे हैं।

हमें अब जंगलों से बाहर निकलने की जरूरत है।

यह आग हमारी जीवन रेखा बन सकती है — इससे हम गर्म रह सकते हैं, और जानवरों से बच सकते हैं।

यह केवल आग नहीं, यह हमारे अस्तित्व का संकेत है।

हम इसे काबू में कर सकते हैं, हम इसे नियंत्रित कर सकते हैं।

हम अब शक्ति की ओर बढ़ रहे हैं!

 

पृथ्वी (धीरे, ममता भरे स्वर में):

तुमने आग को पकड़ा है, लेकिन तुम्हें उसकी शक्ति समझने की आवश्यकता है।

यह तुम्हारे लिए वरदान हो सकती है, लेकिन साथ ही एक भयंकर प्रलय भी।

तुम जिस रास्ते पर चल रहे हो, उसकी मंजिल के बारे में सोचो।

तुमने जीवन के शुरुआती बुनियादी उपकरणों का उपयोग करना शुरू किया, लेकिन तुम्हें पता है कि तुम्हारी शक्ति को संतुलित रखना कितना जरूरी है?

 

मानव (आशावादी स्वर में):

हम विकास की ओर बढ़ रहे हैं।

हमने औजारों को तैयार किया, आग को नियंत्रित किया, और अब हमें खाना पकड़ने और खाना उगाने की कला आ रही है।

हमने नदी के किनारे बसी सभ्यता की नींव रखी, और हम उन रास्तों को खोल रहे हैं जो अतीत में बंद थे।

हम अब अपने भविष्य का निर्माण कर रहे हैं!

 

पृथ्वी (चिंतित स्वर में):

तुम बढ़ रहे हो, लेकिन क्या तुमने कभी यह सोचा है कि तुम्हारी प्रगति के पीछे किसकी बलि है?

तुमने मेरे जंगलों को काट डाला, जल स्रोतों को खत्म किया, और मेरी संतान को मार डाला।

तुम्हारे इस विकास की कीमत क्या होगी? क्या तुम समझ पा रहे हो कि यह सब तुम्हारे ही भविष्य को नुकसान पहुँचाएगा?

 

मानव (निराश, खुद से):

हमने केवल अपने लाभ के लिए हर चीज़ को उपभोग किया है।

जंगलों की लकड़ी, नदियों का पानी, और भूमि का हर टुकड़ा हमारी शक्ति बढ़ाने के लिए लिया।

हमने समझा नहीं कि हम जो कुछ ले रहे हैं, वह कभी हमारे पास नहीं रहेगा।

लेकिन अब हमें समझने की जरूरत है, हमें परिवर्तन करना होगा।

हम अपनी जड़ों की ओर लौटने की कोशिश करेंगे, जहाँ से हम शुरुआत करते थे।

 

पृथ्वी:

अगर तुम चाहते हो कि तुम्हारा विकास स्थिर हो, तो तुम्हें मुझे पुनः समझना होगा।

तुमने मुझसे जितना लिया, उसे वापस करना होगा।

संसाधनों की लूट से कोई संतुलन नहीं बन सकता।

जब तक तुम मेरी वादियों में जीवन की वास्तविक कीमत नहीं समझोगे, तुम्हारी सभ्यता के विकास का उद्देश्य अधूरा रहेगा।

 

मानव (सुनिश्चित स्वर में):

अब हम शिकार करने, उगाने और निर्माण करने की अपनी कला को फिर से संतुलित करेंगे।

हमें अपनी शक्ति को सही दिशा में मोड़ने की आवश्यकता है।

हमने जो खोया है, उसे ठीक करना होगा — हमने जितना लिया है, उससे अधिक हमें देना होगा।

हम पृथ्वी से अधिक नहीं ले सकते, हम उसे उसका हक देंगे।

 

पृथ्वी:

यह अच्छी शुरुआत है, लेकिन तुम्हारी यात्रा केवल आंतरिक सुधार से नहीं, सामूहिक जागरूकता से होगी।

तुम्हें हर रूप में समझना होगा कि तुम अकेले नहीं हो।

सभी प्राणी और सारी प्रकृति एक विशाल कड़ी का हिस्सा हैं।

यह कड़ी टूटने से जीवन का संतुलन बिगड़ जाएगा।

क्या तुम इसे बनाए रखने की क्षमता रखते हो?

 

मानव (दृढ़ता से):

हां, हम इस पृथ्वी के संतुलन को फिर से बहाल करेंगे।

हम अब कर्ज चुकाएंगे, और अपनी गलतियों से सीखेंगे।

हम प्रकृति के साथ तालमेल बैठाकर अपने विकास को स्थायी बनाएंगे।

हमें इस धरती का भविष्य संवारने का अवसर मिला है — और हम उसे गंवाना नहीं चाहते।

 

पृथ्वी (मुस्कुराती हुई, धीर-गंभीर स्वर में):

यह वही आह्वान है, जो मैंने तुम्हारे भीतर बोने की कोशिश की थी।

अब तुम समझने लगे हो कि पृथ्वी और मनुष्य के बीच एक गहरा संबंध है — वह रिश्ता जो जीवन के लिए आवश्यक है।

तुम अब मेरे साथ नहीं, मेरे भीतर हो।

तुम्हारे अस्तित्व का हर कदम मेरी ही धड़कनों से जुड़ा है।

 

*दृश्य 4: पृथ्वी का दोहन प्रजातियों की विलुप्ति*

 

स्थान: शहर का प्रदूषित वातावरण, नदी का सूखा किनारा, फैक्ट्रियों के धुएं से भरा आकाश

 

नेपथ्य प्रभाव:

 

ध्वनियाँ:: पक्षियों की विलीन होती आवाजें, सूखी शाखों की चरमराहट, और धरती के खनकने की आवाज।

प्रकाश: एक कटा हुआ सूरज, धुंधला प्रकाश, जिसे मिट्टी और शापित आकाश के बीच उलझा हुआ महसूस किया जा सकता है। कारों की आवाज, धुएं का निकलना, नदी में मलबे के गिरने की आवाज।

काले बादल, जो सूर्य को ढकते हुए आकाश में फैल गए हैं। फैक्ट्रियों से उठता हुआ धुआं, जिसमें कोई रंग नहीं दिखाई देता।

 

पृथ्वी:

मेरे जंगल अब शोर नहीं करते, मेरे आकाश में अब पक्षी नहीं गाते।

जिस भूमि पर जीवन की लय बसी थी, अब वहाँ चुप्प है, ठहराव है।

मैं देख रही हूँ… कैसे प्रजातियाँ लुप्त हो रही हैं।

क्या तुम महसूस करते हो उस खालीपन को जो अब बढ़ता जा रहा है?

 

वनस्पति:

मैंने अपनी जड़ें तेरी धरती में गहरी की थीं, लेकिन अब इन जड़ों को दरारों में महसूस कर रहा हूँ।

मेरा हर पत्ता सूखता जा रहा है, और हर शाखा टूटने का आभास दे रही है।

मैं देख रहा हूँ — जो कभी जीवन था, वह अब मृत हो रहा है।

कहाँ गए वे जीव, जो मेरी छांव में बसते थे?

 

प्राणी (एक छोटा जीव, उदास):

हम सब कहां जाएंगे?

हमारे पास तुम्हारी उपज नहीं रही।

हमने तुम्हारी रेत में लकीरें छोड़ी थीं, अब हमारे अस्तित्व का कोई निशान नहीं है।

हमने तुम्हारे जंगलों में बसेरा किया था, अब वह भी हमारी पहचान नहीं।

मैं पूछता हूँ, क्या कोई हमें याद रखेगा?

 

पृथ्वी:

मैं तुम्हें नहीं भूल सकती, प्रिय प्राणियों।

लेकिन तुम जो कह रहे हो, वह सत्य है — तुम्हारी संख्या घट रही है।

तुम्हारे अस्तित्व की लय अब मेरे लिए धुंधली हो रही है।

जिस भूमि पर तुम थमे थे, वह अब सूख रही है, और जिस आकाश में तुम उड़े थे, वह अब धुंधला हो गया है।

तुम्हारी आहटें अब मेरी धड़कनों में नहीं गूंजतीं।

 

पृथ्वी:

हे मानव तुमने मुझे तो घायल किया, पर क्या तुम जानते हो कि यह तुम्हारी भी मौत का कारण बनेगा?

तुम्हारी प्रजातियाँ और तुम स्वयं मेरी धड़कनों में अब समाहित हो चुके हो।

तुम्हारे द्वारा की गई हर गलती अब तुम्हारे अस्तित्व के लिए खतरा बन गई है।

तुमने मेरी प्रजातियाँ लुप्त कीं, और अब तुम्हारे सामने संकट खड़ा है — अपने ही अस्तित्व का।

 

पृथ्वी:

अब समय आ गया है, जब तुम्हें अपने हर कदम पर सोच-समझ कर चलना होगा।

तुम्हें हर वादा निभाना होगा, हर जीव के अस्तित्व को सुरक्षित करना होगा।

क्या तुम अपनी गलती को सुधार सकोगे?

क्या तुम उन प्रजातियों को बचा पाओगे जिनका अस्तित्व अब मेरे सीने में भी खो गया है?

 

वनस्पति (कमजोर आवाज में):

हमारे लिए समय नहीं बचा… पर शायद तुम्हारे लिए अब भी एक मौका हो।

क्या तुम हमें जिंदा कर पाओगे, पृथ्वी?

क्या तुम उन जीवों को भी बचा पाओगे जो अब सिर्फ तुम्हारे अतीत में जीवित हैं?

 

*दृश्य 5 : स्वार्थ की अंधी दौड़ — धरती का दोहन मानव की हठधर्मिता*

 

स्थान: सूखते जंगल, बुझती नदियाँ, कंक्रीट के जंगल उगते हुए

 

नेपथ्य प्रभाव:

 

ध्वनि: पेड़ों के कटने की आवाज, मशीनों की गड़गड़ाहट, जानवरों की कराह, कारखानों की आवाज, और फिर गहरा सन्नाटा

प्रकाश: पहले धूप की गर्माहट, फिर धीरे-धीरे धूल और धुंए से ढका आकाश, और अंत में अंधकार

 

 

पृथ्वी (दुख और वेदना से):

क्या यह वही मनुष्य है जिसे मैंने प्रेम से पाला था?

जिसे मैंने छांव दी, फल दिए, जल दिया — अब वही मेरी छाती को चीरता चला जा रहा है।

विकास के नाम पर वह मेरी हरियाली छीन रहा है, मेरे गर्भ से खनिज चुरा रहा है।

क्या स्वार्थ इतना गहरा हो गया है कि उसे मेरा दर्द भी नहीं दिखता?

 

मानव (गर्वित स्वर में):

हमने विज्ञान में प्रगति की है, शहर बसाए हैं, ऊँचाईयों को छुआ है!

यह सब तुम्हारी देन है, पृथ्वी, और हमें अधिकार है इसे उपयोग में लाने का।

हमारा विकास सबसे ऊपर है — जंगल, नदियाँ, जीव, सब हमारे लिए हैं।

अब समय है कि प्रकृति झुके, और मनुष्य राजा बने!

 

पृथ्वी (क्रोध और पीड़ा से):

राजा? तुमने स्वयं को राजा घोषित कर दिया — पर किस राज्य के?

जिस राज्य में हिरण की आँखों से आँसू बहते हैं, पक्षियों के घोंसले उजड़ते हैं, नदियाँ सूखती हैं?

तुम्हारा यह राज्य तुम्हारे ही विनाश का कारण बनेगा।

तुमने विकास के नाम पर विनाश बो दिया है।

 

मानव (हठधर्मी स्वर में):

हमारा हक है इन संसाधनों पर।

हम अपनी मशीनों से पहाड़ों को काटेंगे, नदियों पर बाँध बनाएँगे, हर इंच का उपयोग करेंगे।

अगर कुछ प्रजातियाँ चली भी जाएँ, तो क्या फर्क पड़ता है?

महत्व तो केवल मानव के लाभ का है।

 

पृथ्वी (आहत, पर चेतावनी देती हुई):

यही हठधर्मिता तुम्हें विनाश की ओर ले जा रही है।

एक दिन जब हवा सांस न लेने लायक होगी, जब जल केवल स्मृति रह जाएगा,

जब तुम्हारी औलादें पेड़ों की छांव को केवल किताबों में पढ़ेंगी —

तब तुम जानोगे कि स्वार्थ से बड़ी कोई मूर्खता नहीं होती।

 

मानव (थोड़ा रुककर, फिर भी अंधकार में):

हमारे पास तकनीक है। हम सब कुछ ठीक कर लेंगे।

हम कृत्रिम जंगल बना लेंगे, पानी को फैक्ट्री में बना लेंगे, हवा को बोतलों में बेच लेंगे।

हम प्रकृति के बिना भी जी सकते हैं!

 

पृथ्वी (करुण और करुण पुकार में):

तुम जीओगे, पर जीवित रहकर भी मृत हो जाओगे।

प्रकृति के बिना जीवन नहीं होता, केवल अस्तित्व होता है — और वह भी तड़पता हुआ।

तुम्हारी यह सोच तुम्हें सभ्यता से राक्षसी प्रवृत्ति की ओर ले जा रही है।

क्या यही वह विकास है जिसका स्वप्न तुमने देखा था?

 

मानव (कहीं गहराई में डगमगाता):

शायद… हम भूल गए हैं कि हमने क्या खोया।

शायद हमें रुककर सोचना चाहिए…

पर यह दौड़ इतनी तेज़ हो गई है कि कोई रुकने को तैयार नहीं।

 

पृथ्वी (धीरे, पर दृढ़ स्वर में):

जब दौड़ का अंत मृत्यु हो, तो रुकना ही जीवन है।

मैं अब भी प्रतीक्षा कर रही हूँ कि तुम मेरी कराह को सुनो।

यह समय है चेतने का — नहीं तो तुम भी उन्हीं प्रजातियों में शामिल हो जाओगे जो अब केवल स्मृति हैं।

जीवन के हर रूप को समझने का समय अब आ चुका है।

तुमने अपनी परवाह नहीं की, पर अब तुम्हें खुद की परवाह करनी होगी।

यह संकट केवल तुम्हारा नहीं, मेरा भी है।

अगर तुम चाहते हो कि प्रजातियाँ फिर से जीवित हों, तो तुम्हें अब अपनी पृथ्वी के साथ संतुलन बनाए रखना होगा।

संरक्षण ही अब तुम्हारा धर्म है, और इस धर्म के पालन के बिना जीवन की कोई उम्मीद नहीं।

 

मानव (उदास, देखता हुआ):

यह क्या हो गया है, मेरी पृथ्वी?

तुम्हारे आकाश में धुंआ है, तुम्हारी नदियाँ सूखी हैं, और तुम… तुम अब गहरी चुप्प में समा चुकी हो।

हमने तुम्हारी धड़कनों को रौंद डाला है, और तुम्हारी सांसों को प्रदूषित कर दिया है।

हमने तुम्हें बार-बार लूटा, तुम्हारी माँगों को अनदेखा किया, और तुम्हारी आवाजों को कभी सुना नहीं।

 

पृथ्वी (गहरी सांस लेते हुए, चिंता में):

तुमने मुझे लूटा, लेकिन क्या तुम जानते हो कि तुम्हारा ये दोहन अब तुम्हारे लिए भी खतरे की घंटी है?

तुमने मेरे संसाधनों का अत्यधिक दोहन किया, नदियों को गंदा किया, जंगलों को काटा, और मेरी ऊर्जा का उपयोग किया बिना यह सोचे कि मैं कितनी बार तुम्हारा भार उठा सकती हूँ।

तुम्हारी मेहनत और विकास की प्रक्रिया ने तुम्हारे साथ-साथ मुझे भी कमज़ोर किया है।

 

मानव (क्षमा मांगते हुए):

हमने जो किया, वह केवल हमारी महत्वाकांक्षा और बेमानी विकास के लिए था।

लेकिन अब हम समझ रहे हैं कि यह सिर्फ हमारे अस्तित्व को ही खतरे में नहीं डालता, बल्कि पूरे जीवन को जोखिम में डालता है।

हमने तुम्हारे साथ जो किया, उसका अहसास अब हमें हो रहा है।

हम इस ज़िम्मेदारी से मुँह नहीं मोड़ सकते।

 

 

*दृश्य 6: पृथ्वी का भविष्य और हमारी जिम्मेदारी*

 

स्थान: एक हरित भूमि, पहाड़ों की ऊँचाई से नजर आता हरियाली से भरा दृश्य

 

नेपथ्य प्रभाव:

 

ध्वनियाँ: नदियों की कलकल आवाज, पक्षियों का गीत, पत्तों की सरसराहट, और हवा की हल्की गति।

प्रकाश: सूरज की उज्जवल किरणें, एक स्वच्छ आकाश और समृद्ध भूमि का दृश्य, जो जीवन से भरी हुई है।

 

पृथ्वी (मुस्कुराती हुई, संतुलित स्वर में):

देखो, यह दृश्य था जो मैं तुम्हारे लिए चाहता थी।

तुमने मेरी शांति, मेरे संसाधनों और मेरी खुशहाली को समझा है।

यह हरित भूमि, यह स्वच्छ जल, यह शुद्ध वायु — यह सब तुम्हारी जिम्मेदारी है।

मैं अब देख सकती हूँ कि तुम मेरी पीड़ा को समझने लगे हो।

क्या तुम इसे स्थायी बनाए रखने के लिए तैयार हो?

 

मानव (आश्वस्त स्वर में):

हमने अपनी आंखें खोली हैं, पृथ्वी।

अब हम केवल अपनी भलाई के लिए नहीं, बल्कि तुम्हारी और पूरे जीवन के कल्याण के लिए कदम उठाएंगे।

हमने जो कुछ भी नष्ट किया था, उसे पुनः हरित करना होगा।

हम अब हरियाली के विकास में योगदान देंगे, जल के संरक्षण में लगे रहेंगे, और हर जीवन के अस्तित्व को सुरक्षित रखने का प्रयास करेंगे।

 

पृथ्वी (नम्र स्वर में):

सभी प्रजातियाँ, चाहे वह बड़ी हों या छोटी, सभी का अस्तित्व महत्वपूर्ण है।

तुमने अपने विकास के रास्ते में कई बार मुझे नष्ट किया, लेकिन अब तुम समझ रहे हो कि पृथ्वी पर सभी जीवों का अस्तित्व एक-दूसरे से जुड़ा हुआ है।

अब तुम आओ, मेरे साथ चलो। इस पृथ्वी को पुनः जीवन दें। यह तुम्हारा, मेरा और हर प्राणी का भविष्य है।

 

मानव (गंभीरता से):

हमने तुम्हारी धरती को बहुत दुख दिया है, लेकिन हम अब सुधारने का प्रयास करेंगे।

हम केवल अपनी प्रगति पर ध्यान नहीं देंगे, बल्कि हम जीवन के हर रूप का सम्मान करेंगे।

हमें जलवायु परिवर्तन, प्रदूषण, वन्यजीवों की रक्षा, और सभी प्राकृतिक संसाधनों के संतुलन को प्राथमिकता देनी होगी।

हम एक ऐसी दुनिया बनाएंगे जहाँ हर जीवन का मूल्य हो।

 

पृथ्वी (आशावादी स्वर में):

तुम्हारे इस जागरूकता से मुझे उम्मीद का एक नया आयाम मिला है।

अगर तुम अपनी जिम्मेदारी समझकर इस बदलाव को अपनाओगे, तो मैं फिर से संजीवित हो सकती हूँ।

परंतु यह काम तुम्हारे अकेले का नहीं, पूरी मानवता का है।

तुम जितना चाहोगे, उतना कर सकते हो, लेकिन यह सभी का प्रयास होना चाहिए।

 

मानव (निश्चित स्वर में):

अब हम बदलाव के उस रास्ते पर चलने के लिए तैयार हैं, जो पृथ्वी के साथ हमारे संबंधों को फिर से स्थिर करेगा।

हम हर कदम पर तुम्हारे साथ होंगे।

हम जितना लेते हैं, उतना लौटाने की प्रतिबद्धता रखते हैं।

हम सब एक साथ मिलकर एक बेहतर भविष्य की ओर बढ़ेंगे — एक ऐसा भविष्य जो हमारे और पृथ्वी के लिए सुरक्षित हो।

 

पृथ्वी (संतुष्ट, गहरी साँस लेते हुए):

तुम्हारी आवाज़ों में बदलाव की लहर सुनाई देती है, और मैं विश्वास करती हूँ कि तुम इस रास्ते पर चलोगे।

तुम्हें कभी नहीं भूलना चाहिए कि तुम मेरी संतान हो, और मेरे साथ हर कदम पर चलना तुम्हारा अधिकार और जिम्मेदारी है।

तुम्हारी यह यात्रा एक साथ, मेरे साथ, हर प्राणी के साथ होगी।

हम मिलकर एक नए युग की शुरुआत करेंगे।

 

मानव (आत्मविश्वास के साथ):

हम इसे अपनी धरोहर बना देंगे, पृथ्वी।

हम इसे अपनी जिम्मेदारी समझेंगे।

अब से हम तुम्हारे साथ जीवन को संजोने, उसे संजीवित करने और उसे सुरक्षा देने का संकल्प लेते हैं।

हमारी पृथ्वी का भविष्य अब सुरक्षित होगा।

 

पृथ्वी (धीरे से, प्रेमपूर्ण स्वर में):

यह वही संवाद था जो मैंने तुमसे हमेशा सुना था।

तुमने न केवल अपनी गलती को पहचाना, बल्कि तुमने इसे ठीक करने की ठानी है।

यह अब तुम्हारा वादा नहीं, तुम्हारा कर्म बन गया है।

आओ, हम साथ चलें इस नए अध्याय में, जहाँ हर जीवन की अहमियत होगी, जहाँ पृथ्वी का संरक्षण मानवता की सबसे बड़ी जिम्मेदारी बनेगा।

 

मानव (निश्चयपूर्वक):

हम साथ चलेंगे, पृथ्वी।

हमारे संघर्ष की शुरुआत अब से होगी, और हम तुम्हारी धड़कनों के साथ मिलकर इस धरती को जीवन देंगे।

हम तुम्हें नष्ट नहीं होने देंगे — हम तुम्हारा संरक्षण करेंगे।

 

*दृश्य 7: पृथ्वी की निरंतरता और मानवता का योगदान*

 

स्थान: एक सजीव और समृद्ध पृथ्वी, नई पीढ़ी के युवा कार्यकर्ता और पृथ्वी के तत्वों के साथ एकता

 

नेपथ्य प्रभाव:

 

ध्वनियाँ: बच्चों का हंसना, पक्षियों का चहचहाना, नदियों का बहना, और हवा की हल्की सी आवाज।

प्रकाश: स्वच्छ आकाश, सूरज की सुनहरी किरणें, और पृथ्वी का हरित रंग, जो जीवन से भरा हुआ हो।

 

पृथ्वी (संतुष्ट स्वर में):

अब, तुम सभी ने समझ लिया है कि पृथ्वी का असली विकास संतुलन में है।

यह वह समय है जब मानवता को अपने कर्मों का वास्तविक मूल्य समझना होगा।

तुमने मुझे बचाने का संकल्प लिया है, और अब तुम्हारी जिम्मेदारी मेरे साथ चलने की है।

तुम्हारी संतानें, तुम और मैं, हम एक नए युग की ओर बढ़ रहे हैं।

 

मानव (आत्मविश्वास से भरपूर):

हमने जो शुरू किया था, वह अब जीवन की सच्चाई बन चुका है।

हमने अपनी आदतें बदली हैं, जलवायु को समझा है, और संसाधनों का पुनर्नवीनीकरण शुरू कर दिया है।

हमने अपनी ताकत को प्रकृति के साथ संतुलन में रखा है, और अब हम हर कदम पर इसे स्थायी बनाएंगे।

हम सिर्फ अपने लिए नहीं, बल्कि हर प्राणी के लिए यह बदलाव लाएंगे।

 

पृथ्वी (माँ की तरह, सौम्य स्वर में):

तुम्हारे इस संकल्प को देख मैं गर्वित हूँ।

अब तुम समझने लगे हो कि तुम्हारा और मेरा रिश्ता केवल एक विनिमय नहीं, बल्कि एक साझेदारी है।

यह साझेदारी अब तुम्हारी पीढ़ियों तक चलेगी, और हर नया दिन तुमसे यह उम्मीद करेगा कि तुम मुझे सहेज कर रखोगे।

यह तुम्हारी जिम्मेदारी नहीं, बल्कि तुम्हारा अधिकार है — पृथ्वी का संरक्षण, हर जीव का संरक्षण।

 

मानव (कृतज्ञता से):

हमने जो कुछ खोया था, उसे लौटाने की कोशिश की है।

अब हम प्राकृतिक संसाधनों का ध्यान रखते हुए, हर दिन नयी शुरुआत करेंगे।

हमने केवल कर्ज चुकाने की शुरुआत नहीं की, बल्कि इसे स्थायी बनाने की कोशिश की है।

हमने तुम्हारे साथ तालमेल बिठाया है, और अब हम तुम्हारे भविष्य को संजोने का काम करेंगे।

 

पृथ्वी (प्रसन्न स्वर में):

तुम्हारा यह कदम मेरे लिए उम्मीद की किरण है।

तुमने अपनी गलती को पहचाना और उसे सुधारने की दिशा में काम किया।

अब तुम मुझे मेरे स्वाभाविक रूप में देख रहे हो — एक संरक्षक, एक जीवनदाता।

तुम्हारे इस प्रयास से न केवल पृथ्वी, बल्कि सभी जीवों का अस्तित्व और भविष्य सुरक्षित रहेगा।

 

मानव (निश्चित स्वर में):

अब हम तुम्हारे साथ हैं, पृथ्वी।

हमारी पीढ़ियाँ अब तुम्हें पहले से बेहतर समझेंगी।

हम सिर्फ संसाधनों को नहीं लूटेंगे, बल्कि उन्हें संरक्षित करेंगे, ताकि आने वाली पीढ़ियाँ भी उनका उपयोग कर सकें।

हम तुम्हें नष्ट नहीं करेंगे, बल्कि तुम्हारे अस्तित्व को और सशक्त करेंगे।

हमारी यह यात्रा अब एक नई दिशा की ओर बढ़ेगी — एक ऐसी दिशा जहाँ जीवन की असली मूल्य समझी जाएगी।

 

पृथ्वी (संतुलित स्वर में):

याद रखो, तुम्हारे हर कदम से इस धरती का भविष्य तय होगा।

तुम्हारी यह जिम्मेदारी अब तुम्हारे जीवन का हिस्सा बन गई है।

तुम्हारी शिक्षा, तुम्हारा हर कार्य, और तुम्हारी हर सोच पृथ्वी के संरक्षण में योगदान देगी।

तुमने जो शुरुआत की है, वह पूरे विश्व के लिए एक संदेश है — संरक्षण और समृद्धि की ओर।

 

मानव (दृढ़ता से):

हम इसे अपनी जीवनधारा बनाएंगे, पृथ्वी।

अब ह

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