गाडरवारा – यादों का वो करिश्माई कस्बा
(संस्मरण भाग – 2)
कुछ कस्बे नक्शों पर छोटे होते हैं, पर दिलों में विराट। गाडरवारा हमारे लिए ऐसा ही एक करिश्माई कस्बा था जिसकी हर गली, हर मोड़, हर धूल भरी सड़क आज भी स्मृतियों की धुंध में चमकती है। यह केवल एक भूगोल नहीं था, यह जीवन जीने का अंदाज़ था।
यह कहानी है उस गाडरवारा की जो अब धीरे-धीरे स्मृति बनता जा रहा है, पर दिल के किसी कोने में अब भी साँसें ले रहा है।
गाडरवारा… एक नाम है, पर मेरे लिए यह एक पूरी दुनिया है। जब मैं आँखें बंद करता हूँ, तो धूप से चमकती हुई पुरानी पगडंडियाँ, पसीने से भीगी हमारी हँसी, और रिश्तों की छाँव में बीता वह बचपन, जैसे किसी चलचित्र की तरह सामने आ खड़ा होता है।
हमारी सुबहें सूरज से पहले जाग जाती थीं। मोहल्ले के बुजुर्ग हाथ में लोटा और मन में श्रद्धा लिए मंदिर की ओर निकलते थे। रास्ते में पिसी हुई चीनी और आटा चींटियों के लिए, चिड़ियों के लिए दाना यह उनका हर दिन का व्रत था। वे शायद यह नहीं कहते थे कि प्रकृति से प्रेम करो, वे बस उसे जीते थे।वो बस धार्मिक नहीं थे, वो सिखाते थे कि सृष्टि के हर जीव में ईश्वर है। चिड़ियों के लिए दाना डालना, नल के पास बैठकर उनके चहचहाने को सुनना यह सब उनकी पूजा का हिस्सा था।
पलोटनगंज से लेकर चौकी मोहल्ला तक, राठी तिगड्डा से लेकर गल्ला मंडी तक फैली इन गलियों में हर चेहरा जाना-पहचाना था। कोई ‘बबलू भैया’ के नाम से जाना जाता था, तो कोई ‘श्यामू काका’ के किस्सों का केंद्र था। मोहल्ले का हर बच्चा हर घर का सदस्य होता था। हमें रिश्ते सिखाने की ज़रूरत नहीं थी, वे हवा में घुले रहते थे।
हमारे मोहल्ले के हर आँगन में अपनापन उगता था। किसी के घर से रोटियों की खुशबू आती तो लगता वो अपनी माँ के यहाँ से आ रही है। मोहल्ले की हर माँ, सबकी माँ थी। किसी की डांट में भी ममता थी और किसी की थपकी में भी।
रामलीला का वो मैदान, जहाँ हर साल गल्ला मंडी की चौक पर भीड़ लगती थी। रंगमंच पर राम, रावण, लक्ष्मण हम बच्चों के लिए यह चरित्र नहीं, जीवंत देवता थे। आज वो यादों की धुंधली सी तस्वीर ही एक उजला सच बन गई है।
कॉलेज ग्राउंड की वो घोड़े चरने की कहानियाँ… हम दोस्त चुपचाप उनकी पीठ पर चढ़ जाते, हवा को चीरती वो सवारी मानो ज़िंदगी की सबसे बड़ी जीत हो। लेकिन जैसे ही उनके मालिक आ जाते “अबे! नीचे उतर! और फिर हमारी भागती टोलियाँ, हँसी से लोटपोट।
गपनी, अंडा डावरी, सतोलिया, बाटा ये हमारे ‘पबजी’ थे। कोई हारने पर घर नहीं छोड़ता था, उल्टा फिर खेलने की चुनौती देता। वो मिट्टी की महक, घुटनों के छिलने का गर्व और जीत के बाद रसना की बोतल—सब आज एक सपना सा लगता है।
खेलों में हार जीत नहीं होती थी, वहाँ दोस्ती होती थी। घुटने छिलते थे पर चेहरे मुस्कुराते रहते थे। शाम को माँ के हाथ की रोटी खाते हुए उन कहानियों को फिर से जीते थे।
श्याम टॉकीज की वो कतारें! टिकट लेने की मारामारी,
किल्लत, और फिल्म के बीच बिजली चले जाने का रोमांच—जब फिल्म रुकती, हम घर जाकर झटपट खाना खाकर वापस आते। “दीवार”, “शोले”, “साजन” जैसे नाम आज भी हमारी नब्ज़ बढ़ा देते हैं। कभी-कभी तो पिता जी से झूठ बोलकर फिल्म देखना, और पकड़े जाने पर घर में ‘सीन’ बनना, एक अलग ही किस्सा था।
मुझे याद है एक बार पिताजी से झूठ बोल कर ‘दीवार’ देखने चला गया, और फिर घर लौटने पर वे आँखों से ही सब समझ गए। उन्होंने थप्पड़ मारा, फिर धीरे से पूछा, “अच्छा था क्या अमिताभ,उसने कैसा रोल निभाया ?
डोल ग्यारस की रातें जैसे पूरे कस्बे की नींद छीन लेती थीं। वो झाँकियाँ, वो ढोल-नगाड़े, वो बिजली की मद्धम रौशनी में चमकती मूर्तियाँ एक अद्भुत संसार था।डोल ग्यारस गाडरवारा का गर्व था। सजी हुई झांकियाँ, ढोल-नगाड़ों की धुन, और पूरी रात जागने का उत्सव
शक्कर नदी की रेत में पैर दबाकर चलना, आमों की चोरी करना और फिर वहीं पेड़ के नीचे बैठकर बाँटना, सब कुछ बाँटा करते थे फल भी, हँसी भी।
राम घाट पर दास जी की डांट आज भी कानों में गूँजती है”तैरना सीखना है या मछली पकड़ना है बे!” उनकी डांट में भी गहराई थी, अनुशासन भी और स्नेह भी।
नवदुर्गा का समय तो जैसे स्वर्ग उतर आता था। बावला ऑर्केस्ट्रा की रातें, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल नाइट, सोनू निगम का पहला लाइव गाडरवारा की वो रातें संगीत के सबसे मधुर सुर थीं। गाडरवारा की नवदुर्गा में ये केवल संगीत नहीं था, वह उत्सव की आत्मा थी। पूरा शहर जैसे एक परिवार बन जाता था, रात्रि जागरण का हर क्षण एक जीवंत याद बन जाता।
गणेश चतुर्थी, होलिका दहन हर त्योहार में मोहल्ला एक हो जाता था। लकड़ी जुटाना, झांकी सजाना, एकता की वो मिसाल अब सिर्फ़ यादों में रह गई है।
होली पर भांग की ठंडाई और घर की पिटाई! एक बार तो इतने रंगों में सराबोर हो गए कि माँ ने पहचानने से मना कर दिया। पिताजी बोले, “मुँह धो ले, फिर मारूँ या पहले?” और हम सब ठहाकों में लिपटे भाग खड़े हुए।
स्कूल की साइकिल यात्रा, पिता की चुप्पी में छिपी चिंता, और माँ की झुँझलाहट में छिपा प्यार—वो समय अब किसी पुराने रेडियो की धुन जैसा हो गया है, जिसे बजाने के लिए हमें फिर से उस कस्बे में लौटना होगा।
आज गाडरवारा शहरी हो गया है, पर उस पुराने कस्बे की धड़कन अब भी मेरे दिल में गूंजती है। उसकी हर गली, हर याद, हर रिश्ता मेरी आत्मा में गुँथा है।
गाडरवारा हमारे लिए कोई स्थान नहीं, एक भाव था। एक ऐसी धरती थी जहाँ हमने जीवन को प्रेम, अपनापन, हँसी और आँसुओं के साथ जीना सीखा।
आज जब शहर की भीड़ में खुद को अकेला पाता हूँ, तब मन कहता है काश! एक बार फिर उसी गली में सुबह हो, वही घोड़े चर रहे हों, वही दोस्तों की टोली हो, और श्याम टॉकीज में बिजली चली जाए… हम फिर घर से भाग कर फिल्म पूरी देखने लौटें।
गाडरवारा, तुम कभी नहीं जाओगे… क्योंकि तुम कहीं बाहर नहीं, मेरे भीतर बसे हो।
✒️सुशील शर्मा✒️