सरकारी शिक्षा बनाम निजी शिक्षा : समाज की दशा और दिशा
( विशेष आलेख – सुशील शर्मा)
भारतीय समाज में शिक्षा केवल ज्ञान का माध्यम नहीं, बल्कि सामाजिक उन्नति, आर्थिक सशक्तिकरण और राष्ट्र–निर्माण का आधार है। किंतु इस शिक्षा व्यवस्था में दो समानांतर धाराएँ स्पष्ट दिखती हैं — सरकारी शिक्षा और निजी शिक्षा। इन दोनों प्रणालियों के बीच का अंतर आज शिक्षा के लोकतांत्रिक स्वरूप को चुनौती देता दिखाई देता है। ज़रूरत है गहराई से यह समझने की कि समस्या सिर्फ तुलना की नहीं, संतुलन और सुधार की भी है।
सरकारी स्कूल : सच्चाई और चुनौतियाँ
1. आधारभूत समस्याएँ
भवन और संसाधनों का अभाव: कई सरकारी स्कूलों में अभी भी छत टपकती है, शौचालय नहीं हैं, पीने का पानी अस्वच्छ है।
शिक्षक की कमी: एक ही शिक्षक को कई कक्षाओं में पढ़ाना पड़ता है। कई बार गणित शिक्षक को विज्ञान पढ़ाना पड़ता है।
गुणवत्ता में गिरावट: ASER रिपोर्टों में बार–बार यह बात आई है कि सरकारी स्कूलों के बच्चों की पढ़ाई और गणना करने की क्षमता में गिरावट देखी गई है।
2. सामाजिक दृष्टिकोण की कमी
सरकारी स्कूलों को गरीबों, मजदूरों, पिछड़े वर्गों के बच्चों की पढ़ाई का स्थान मान लिया गया है।
मध्य वर्ग और शिक्षित वर्ग स्वयं निजी स्कूलों की ओर रुख करता है, जिससे यह संस्थान “कमज़ोरों का स्कूल” बनते जा रहे हैं।
लेकिन… क्या सिर्फ कमी ही है? नहीं!
सरकारी स्कूलों में जहाँ अनेक चुनौतियाँ हैं, वहीं कुछ बेहद प्रेरणादायक सफलताएँ भी देखने को मिली हैं:
1. बोर्ड परीक्षाओं में उल्लेखनीय प्रदर्शन
हाल ही में कई राज्य बोर्ड परीक्षाओं में सरकारी स्कूलों के छात्र–छात्राओं ने शानदार प्रदर्शन किया है।
दिल्ली, तमिलनाडु, ओडिशा,मध्यप्रदेश और राजस्थान के कई सरकारी स्कूलों में बच्चे 90% से अधिक अंक प्राप्त कर रहे हैं।
2. नवोदय विद्यालय और केन्द्रीय विद्यालयों की सफलता
ये सरकारी स्कूल भारत के ग्रामीण और अर्ध–शहरी बच्चों को गुणवत्ता–युक्त शिक्षा देते हैं। यहाँ से निकले विद्यार्थी देश-विदेश की श्रेष्ठ संस्थाओं में पहुँचते हैं।
3. नवाचार और शिक्षक–संकल्प
कई सरकारी शिक्षकों ने अपने प्रयासों से स्कूलों का कायाकल्प किया है — कहीं बागवानी, कहीं स्मार्ट क्लास, तो कहीं मोबाइल एप के जरिए पढ़ाई।
छत्तीसगढ़, केरल, और मध्यप्रदेश के कुछ जिलों में ऐसे शिक्षक उदाहरण बन चुके हैं।
निजी स्कूल : आधुनिकता की आड़ में अंधी दौड़
1. सुविधाएँ — पर किस मूल्य पर?
निजी विद्यालयों में स्मार्ट क्लास, एसी कक्षाएँ, अंग्रेज़ी माध्यम आदि आधुनिकता के प्रतीक बन गए हैं।
पर यह सब अभिभावकों की जेब पर भारी पड़ता है — हर साल बढ़ती फीस, ब्रांडेड यूनिफॉर्म, और महंगी किताबें।
2. शिक्षा या प्रतिस्पर्धा?-
बच्चों पर कक्षा 1 से ही परीक्षा, रैंक, ओलंपियाड का दबाव बनाया जाता है। इससे रचनात्मकता और मनोवैज्ञानिक संतुलन प्रभावित होता है।
अनेक निजी विद्यालय केवल अंकों की होड़ में लगे रहते हैं — नैतिक शिक्षा, सह–अस्तित्व और चरित्र निर्माण जैसे विषय गौण हो जाते हैं।
समाज पर प्रभाव : एक असमान भारत
सरकारी और निजी शिक्षा के बीच गहराता अंतर शैक्षिक असमानता को जन्म देता है।
निजी विद्यालयों के विद्यार्थी साक्षात्कार, प्रवेश परीक्षाओं में आगे निकल जाते हैं; वहीं सरकारी स्कूलों का बच्चा शुरुआत से ही पिछड़ जाता है।
यह स्थिति समान अवसर की अवधारणा को खंडित करती है और वर्ग आधारित समाज को जन्म देती है।
भविष्य की संभावनाएँ : नई रोशनी की राह
1. राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP 2020):
स्कूली शिक्षा को समावेशी, बहु–विषयक और मातृभाषा–आधारित बनाने का प्रयास किया गया है।
सरकारी स्कूलों को “School Complex” या “Cluster School” के रूप में विकसित करने की योजना है।
2. प्रौद्योगिकी का उपयोग:
डिजिटल लर्निंग, ई–पाठशालाएँ, DIKSHA जैसे सरकारी प्लेटफॉर्म सरकारी शिक्षा को तकनीकी रूप से समृद्ध बना रहे हैं।
3. सामुदायिक भागीदारी:
ग्रामीण क्षेत्रों में पंचायतों और स्थानीय नागरिकों के सहयोग से सरकारी स्कूलों का कायाकल्प हो रहा है।
“स्कूल चलें हम” जैसे अभियान स्कूलों में बच्चों की भागीदारी और अभिभावक की जागरूकता को बढ़ा रहे हैं।
समाधान और सुझाव
1. सरकारी स्कूलों में निवेश बढ़ाया जाए। बजट का कम से कम 6% शिक्षा को दिया जाए — जैसा कि नई शिक्षा नीति प्रस्तावित करती है।
2. शिक्षकों को सिर्फ पढ़ाने का कार्य दिया जाए। गैर–शैक्षणिक कार्यों से मुक्ति मिले।
3. निजी स्कूलों को नियंत्रण में लाने हेतु कड़े नियम लागू हों।
4. एक समान पाठ्यक्रम प्रणाली लागू हो। जिससे सभी बच्चे एक ही स्तर पर खड़े हों।
5. शिक्षा में मूल्य और जीवन कौशल को शामिल किया जाए।
6. जनप्रतिनिधियों के बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ें — ऐसा नियम हो। ताकि व्यवस्था में जवाबदेही आ सके।
शिक्षा का उद्देश्य केवल नौकरी दिलाना नहीं, व्यक्ति निर्माण और समाज निर्माण है। अगर सरकारी स्कूलों को सशक्त किया गया और निजी स्कूलों को संयमित किया गया, तो भारत एक शैक्षिक रूप से समरस और सशक्त राष्ट्र बन सकता है।
समाज तभी बदलेगा जब स्कूल बदलेंगे। और स्कूल तब बदलेंगे जब हम — आप और हम — शिक्षा को अधिकार नहीं, कर्तव्य मानकर आगे बढ़ाएँगे।
✒️सुशील शर्मा✒️