विद्यार्थियों के व्यक्तित्व के विकास में शिक्षकों की भूमिका(सुशील शर्मा)
शिक्षकों का बदलाव की क्षमता से युक्त होना अनिर्वाय है। अध्यापन को प्रमाण पर आधारित व्यवसाय होना चाहिए और कि इससे बच्चों के लिए बेहतर परिणाम प्राप्त होंगे। विशेष रूप से, वे सुझाते हैं कि संस्कृति में परिवर्तन की जरूरत है, जहाँ शिक्षक और राजनीतिज्ञ स्वीकार करते हैं कि हमें आवश्यक रूप से ‘पता’ नहीं होता कि क्या सबसे अच्छी तरह से काम करता है। अनुमान यह होता है कि प्रमाण पर आधारित विधि एक अच्छी चीज है और अनुशंसित परिवर्तन शिक्षकों द्वारा स्वयं अपने काम का अनुसंधान करके प्राप्त किए जा सकते हैं। वास्तव में, जिन विद्यालयों में अनुसंधान की परिपाटियाँ स्थापित हैं, वहाँ यह मान्यता होती है कि यह बात विद्यालय के सुधार में योगदान कर सकती है। अपने स्वयं के काम की व्यवस्थित ढंग से जाँच करते हैं, ताकि उसमें सुधार कर सकें। कोई समस्या पहचानें जिसे आप अपनी कक्षा में हल करना चाहते हैं: यह कोई विशिष्ट बात हो सकती है जैसे क्यों कोई छात्र प्रश्नों का उत्तर नहीं देते हैं या आपके विषय के किसी पहलू को कठिन या निरुत्साहित करने वाला पाते हैं, या यह कोई अधिक साधारण बात हो सकती है जैसे समूह कार्य को प्रभावी ढंग से कैसे आयोजित किया जाय। प्रयोजन को परिभाषित करें और स्पष्ट करें कि हस्तक्षेप का क्या प्रारूप होगा: इसमें साहित्य का संदर्भ लेना और यह लगाना शामिल होगा कि इस समस्या के बारे में पहले से क्या पता है। समस्या से निपटने के लिए परिकल्पित किसी हस्तक्षेप की योजना बनाएँ। अनुभवजन्य डेटा जमा करें और उसका विश्लेषण करें। एक और हस्तक्षेप करने की योजना बनाएँ यह इस बात पर आधारित होगा कि आपको क्या पता चलता है और उसे आपके द्वारा पहचानी गई समस्या को आगे समझने के लिए परिकल्पित किया जाएगा। अध्यापक एक ऐसा सामाजिक प्राणी है जो बेड़ियों में जकड़ा है. लेकिन उससे स्वतंत्र सोच वाले नागरिक बनाने की उम्मीद की जाती है. अध्यापक शैक्षिक प्रशासन के ‘भययुक्त वातावरण’ में जीता है और स्कूल में बच्चों के लिए ‘भयमुक्त माहौल’ बनाने का रचनात्मक काम करता है. बच्चों को सवाल पूछने और जवाब देने के लिए प्रेरित करता है. इससे अध्यापकों के सामने मौजूद विरोधाभास विचारों के टकराव को समझा जा सकता है. इसके कारण अध्यापकों को वैचारिक अंतर्विरोध का सामना करना पड़ता है। शिक्षा का उपकरणीय दृष्टिकोण कक्षा में होने वाले निरर्थक अभ्यासों और गतिविधियों को अपनाकर, संवेदी क्षमताओं, जिज्ञासा को कुन्द करके और प्रतिस्पर्धात्मक रवैये को बढ़ावा देकर अपनाया जाता है। हम इस पद्धति के उदाहरण विभिन्न विषयों (गणित, भाषाएँ, विज्ञान, सामाजिक विज्ञान) के विषय-वस्तु और शिक्षण में, मूल्यांकन व्यवस्थाओं में, तथ्यों और आँकड़ों को रटकर ज्यों-का-त्यों उतार देने की अपेक्षा में, मानव मस्तिष्क की मौलिक सम्भावनाओं को क्षीण करते जाने में देख सकते हैं। ज़मीनी अनुभवों ने दर्शाया है कि प्रसन्न और रोमांचित रहने वाले बच्चों को जैसे-जैसे मुख्यधारा में लाया जाता है, वे उत्तरोत्तर दब्बू होते जाते हैं। उनका लिखना स्वाभाविक भावों की अभिव्यक्ति की बजाय सिर्फ ‘स्वीकृत ज्ञान’ को लिख देने तक सीमित हो जाता है। स्कूल जाने वाले बच्चों से राष्ट्रीय ध्वज, नुकीले पर्वत या फूलदान में रखे कृत्रिम दिखने वाले फूलों के अलावा कोई और चित्र बनवाने के लिए ढेर सारे प्रोत्साहन और मदद की आवश्यकता होती है।
हमें शिक्षा के लक्ष्यों पर पुनर्विचार करना होगा। उसे जड़ शरीर और बुद्धि को नहीं अपितु आत्मा को शिक्षित करना चाहिए। इन तीनों (धर्म, अर्थ और काम) के बीच सुव्यवस्थित संतुलन रखकर ही दुनिया में पारिस्थितिकी संतुलन को कायम रखा जा सकता है।बालक की शिक्षा ऐसी होनी चाहिये जिसे वह अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व को विकसित करते हुए अपनी योग्यताओं तथा क्षमताओं के अनुसार स्वतंत्र नागरिक के रूप में राष्ट्र की सेवा कर सके।
चूँकि भारतवर्ष अब एक जनतांत्रिक समाजवादी राष्ट्र है, इसलिए अब हमारी शिक्षा का मुख्य उद्देश्य सच्चे, इमानदार तथा कर्मठ नागरिक उत्पन्न करना है। इस उद्देश्य के अनुसार हमारे स्कूलों ने अब स्वयं एक आदर्श समाज का रूप धारण कर लेना चाहिए। उनमें प्रेम तथा आत्म-त्याग की भावना का सुन्दर एवं उत्तम वातावरण दिखाई देना चाहिए । पाठ्यक्रम का अर्थ अब संकुचित न होकर व्यापक होना चाहिए। उन्हें उनके अधिकारों तथा राष्ट्र के प्रति कर्तव्यों से भी अवगत कराया जाना चाहिए जिससे उनमें प्रत्यक्ष रूप से राष्ट्र सेवा की भावना जागृत हो।