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May 2, 2024
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सती परित्याग काव्य नाटिका पात्र  शिव ,सती ,राम लक्ष्मण ,याज्ञवल्क्य ,भरद्वाज।

सती परित्याग

काव्य नाटिका

पात्र  शिव ,सती ,राम लक्ष्मण ,याज्ञवल्क्य ,भरद्वाज।

 

मंगलाचरण

अर्थ समूहों रस छंदों के

देवों का अभिनंदन हैं |

वाणी और विनायक प्रभु के

श्री चरणों में वंदन है।

श्रद्धा सद विश्वास रूप में

हृदय हमारे भरते हैं ।

पार्वती शिव के चरणों में

श्री वंदन हम करते हैं ।

 

जिनके मस्तक पर चढ़ने से

वक्र चन्द्रमा वन्दित है।

आदि गुरु शिव के चरणों में

नमन हृदय आल्हादित है ।

वाल्मीक के श्री चरणों में

मैं.प्रणाम नित करता हूँ ।

श्री हनुमत पग वंदन करके

उन्हें ध्यान मन धरता हूँ।

 

सब क्लेशों को हरने वाली

माँ सीता का वंदन है ।

अखिल विश्व के स्वामी प्रभु जी

राम चंद्र अभिनंदन है ।

पुराण, वेद शास्त्र से सम्मत

हर मन की है अभिलाषा ।

राम कथा यह अति सुख दायक

मंजुल मधुर मनोहर भाषा।

 

कार्य सिद्ध जो सबके करते

जो गणपति गण नायक हैं।

कृपा करें प्रभु मुझ बालक पर

आप बुद्धि के दायक हैं।

गूँगा भी वाणी पा जाए

लंगड़ा दुर्गम भूधर नापे।

कलि मल पाप नाश सब करता

जो प्रभु नाम सदा मन जापे।

 

नील कमल सा श्याम वर्ण हैं

रक्त कमल से नयना हैं ।

हृदय हमारे आन बसो प्रभु

क्षीर सिंधु प्रभु शयना हैं ।

कुंद इंदु से गौर वर्ण हैं

मात भावनी के प्रियवर।

काम देव को ध्वंस किया प्रभु

दया करो प्रभु श्री नटवर।

 

 

गुरु वंदन

 

कृपा सिंधु नर रूप धरें गुरु

उन चरणों का वंदन है ।

तमस ,मोह का नाश करें प्रभु

कोटि कोटि अभिनंदन है ।

 

दिव्य ज्योति गुरुपद मणि जैसी

सुमरत ही सब मोह हरे ।

बड़े भाग जिसके मन ठहरे

अंधकार का नाश करे ।

 

श्री गुरु चरणों की पद रज से

मन नैनों का अंजन है ।

भव सागर को पार कराती

राम कथा मन रंजन है ।

 

 

प्रथम दृश्य

(प्रयाग में भरद्वाज मुनि का आश्रम ,मकर भर स्नान करके सब मुनीश्वर अपने-अपने आश्रमों को लौट गए। परम ज्ञानी याज्ञवल्क्य मुनि के चरण पकड़कर भरद्वाजजी बोले )

 

भरद्वाज –

आप ज्ञानी ,वेद पंडित,

तत्व से भरपूर हैं।

मैं अधम अज्ञान धारे ,

आप सत सम्पूर्ण हैं।

 

लाज मन में आज भर कर ,

आप से संवाद है।

उम्र बीती ज्ञान कुछ न ,

बस यही परिवाद है।

 

मैं भरा अज्ञानता से ,

ज्ञान मुझको दीजिये।

नाथ! सेवक पर कृपा कर,

नाश तम का कीजिये।

 

प्रश्न मन में बहुत सारे ,

मन हृदय बस मौन है।

हे गुरु इतना बताएं ,

श्री राम सियवर कौन हैं।

 

क्या ये दशरथ पुत्र हैं ,

जो दशानन हंता हैं।

घोर कष्ट को सहने वाले ,

ये सीता के कंता हैं।

 

साम्बशिव आराध्य हैं क्या ,

शिव सदा जपते इन्हें।

जीव तारक मंत्र से ,

स्वर्ग में पाते जिन्हें।

 

इस परम संदेह को गुरु ,

आज आप मिटाइये।

कौन हैं श्री राम राघव ,

अब मुझे समझाइये।

 

याज्ञवल्क्य-

मन वचन क्रम से सदा ही ,

राम के तुम भक्त हो।

इसलिए उनके गुणों के

श्रवण में अनुरक्त हो।

 

अब मन लगा कर तुम सुनो ,

राम की सुंदर कथा।

सकल शुभ फल दायनी ये ,

हरे जीवन की व्यथा।

 

है भयंकर महिष जैसा ,

हृदय का अज्ञान यह।

महाकाली कथा है यह ,

है दिवाकर ज्ञान यह।

 

चंद्र रश्मियों सी अति शीतल ,

रामकथा अति पावन है।

संत चकोर से रस को पीते ,

कष्ट पाप की धावन है।

 

यह संदेह सती मन आया ,

जिसको शिव जी जपते हैं।

वही राम वन वन में भटकें ,

सीता सीता रटते हैं।

 

वही कथा मैं तुम्हें सुनाता ,

मुनिवर ध्यान से तुम सुनना।

अति पावन यह कथा मनोहर ,

बार बार इसको गुनना।

दूसरा दृश्य –

(श्री राम और लक्ष्मण मनुष्यों की भाँति विरह से व्याकुल हैं और दोनों भाई वन में सीता को खोजते हुए फिर रहे हैं। जिनके कभी कोई संयोग-वियोग नहीं है, उनमें प्रत्यक्ष विरह का दुःख देखा गया। वहीँ पर शिव और सती एवं गमन कर रहें हैं )

 

शिव

मन अति व्याकुल व्यथित हुआ है ,

कब प्रभु दर्शन पाऊंगाँ।

राम रमापति दर्शन दे दो ,

चरणों के गुण गाऊंगा।

 

नेपथ्य में याज्ञवल्क्य-

विरह की उस लीला के दर्शन ,

पाकर शिव आनंदित हैं।

राम रूद्र आराध्य सदा से ,

शिव प्रभु से ही वन्दित हैं।

 

देख हरि को शम्भु ने तब ,

मगन मन हाथ जोड़े।

चरण छवि भरकर हृदय में ,

नैन से तब अश्रु छोड़े।

 

सती ( मन में सोचते हुए )-

 

देख कर शम्भु दशा यह ,

सती मन संदेह गहरा।

हैं अनामय आदि शम्भु ,

सामने कब कौन ठहरा।

 

सारा जगत नर , देव, दानव ,

करें नित शिव वंदना।

वही शिव इन तपसियों की ,

कर रहे आराधना।

 

सीता विरह में जल रहें हैं ,

क्या यही जगदीश हैं ?

ब्रह्म कहते शिव जिन्हें ,

क्या यही शिव के ईश हैं ?

 

सर्व व्यापक हैं अजन्मा ,

सृष्टि के आधार हैं क्या।

देह धर कर मनुज बन कर ,

विष्णु के अवतार हैं क्या ?

 

शिव सदिश सर्वज्ञ हैं जो ,

ज्ञान के भंडार हैं।

मूढ़ बन कर स्त्री खोजें ,

क्या यही श्री आधार हैं।

 

पर वचन शिव के न झूठे ,

सत्य ही शिव बोलते हैं।

पर भवानी चुप रहीं ,,

प्रश्न अंदर खौलते हैं।

 

नेपथ्य में याज्ञवल्क्य-

 

शिव सदा अंतस विराजें ,

सारी बातें जान गए।

संदेहों से घिरी भवानी ,

क्षण में ही पहचान गए।

 

शिव जी (सती को राम के प्रभाव एवं उनके परम ब्रह्म रूप को समझते हुए )-

 

नारी मन संदेह का जंगल ,

संदेहों से दूर रहो।

सती राम मेरे परमेश्वर ,

हैं अनादि अविनाश अहो।

 

इष्ट देव रघुवीर हमारे,

सेवत जिनको मुनि ज्ञानी।

ब्रह्म अनामय आदि अनत हैं,

सदा सुमंगल विज्ञानी।

 

वेद पुराण जिन्हें हैं गाते ,

ऋषि मुनि योगी ध्यान करें।

व्यापक ब्रह्म गूढ़ मायापति ,

जग हित प्रभु अवतार धरें।

 

नेपथ्य में याज्ञवल्क्य-

बहु विधि शंकर ने समझाया ,

पर न मिटी संदेह की छाया।

मन ही मन शिव जी मुस्काये ,

समझ गए भगवान की माया।

 

शिवजी

यदि संदेह अधिक है मन में ,

प्रिये परीक्षण तुम कर लो।

दूर करो संदेह हृदय का ,

जैसे भी हो मन भर लो।

 

ब्रह्मा विष्णु शंकर देखे ,

रघुवर की जो करते पूजा।

श्री शारद अरु सती अनुचरी ,

नहीं राम सम कोई दूजा।

 

लीला के इस अजब खेल में ,

राम सिया मय सब सृष्टि थी।

सती का सब संताप मिटे बस ,

रघुवर की करुणा दृष्टि थी।

 

देख प्रभु की इस लीला को ,

हृदय कंप मन भय था भारी।

आँख मूँद पथ पर ही बैठी ,

करुण दशा में सती बिचारी।

 

पुनः आँख जब सती ने खोलीं ,

सब कुछ पहले जैसा पाया।

बार बार प्रभु का वंदन कर ,

चली जहाँ थी शिव की छाया।

 

तीसरा दृश्य –

(वन में शिव जी की आज्ञा पाकर सती राम का परीक्षण करने जाती हैं )

 

नेपथ्य में याज्ञवल्क्य-

 

पाकर आज्ञा शिव शंकर की ,

सती ने मन में ठानी थी।

कितनी मुश्किल होने वाली ,

सती कहाँ ये जानी थी।

 

सती –(सती मन में राम की परीक्षा का दृढ़ निश्चय करतीं हैं)-

 

आज सभी संदेह मिटा दूँ ,

परखूँ शिव परमेश्वर को।

सच में राम अनादि अनामय ,

देखूँ इन जगदीश्वर को।

 

कैसे करूँ परीक्षण इनका

कैसे इनको मैं जानूँ।

कैसे हैं शिव के जगदीश्वर ,

मायापति इनको मानूँ।

 

शिव जी (शिव जी सती के मन में उपजे संदेह को पढ़ते हैं और आने वाले प्रारब्ध को समझ कर विवश हैं। )-

 

कितने दुःख अब आने वाले ,

जिनका कि परिमाण नहीं।

दक्षसुता पर संकट छाये ,

अब इसका कल्याण नहीं।

 

रचा हुआ है भाग्य राम ने ,

वही आज अब होना है।

क्यों कर तर्क करें अब इस पर,

कुछ पाना कुछ खोना है।

 

नेपथ्य में याज्ञवल्क्य-

राम नाम की महिमा गाते ,

शिव ने प्रभु का ध्यान किया।

रघुवर का मैं करूँ परीक्षण ,

सती ने मन में ठान लिया।

 

हैं भटकते राम जिस वन ,

साथ लक्ष्मण हैं जहाँ।

भेष सीता का सँवारे ,

सती पहुँची हैं वहाँ।

 

चौथा दृश्य

(सती सीता का वेश धारण कर उस पथ पर बैठ जातीं है जहाँ से राम लक्ष्मण को निकलना होता है )

 

देख सती सिय भेष में ,

लखन हैं अतिसय चकित।

मूक ,रघुवर को निहारें ,

धीर बुद्धि अति भ्रमित।

 

अंतस में प्रभु बसने वाले ,

सती हृदय को जान गए।

जो सर्वज्ञ ज्ञान के दाता ,

सती कपट पहचान गए।

 

राम (मुस्कुराते हुए सती से बोलते हैं )-

 

मुस्कुरा कर राम बोले ,

मात तुमको है नमन।

कहाँ पर भोले विराजे ,

क्यों आपका यह वन गमन।

 

नेपथ्य में याज्ञवल्क्य-

 

प्रेम मय प्रभु के वचन सुन,

सती मन विस्मय भरा।

मन में भय संकोच ले कर,

रास्ता शिव का धरा।

 

हृदय में चिंता बड़ी थी ,

मन भरा था भय कठिन।

हे विधाता अब क्या होगा ,

तन -हृदय था सब मलिन।

 

सती (चिंता में सोचते हुए )

 

नहीं मानी बात शिव की ,

कौन से अब क्या कहूँ ?

क्या कहूँगी नाथ से अब ,

मैं मरुँ या जीवित रहूँ ।

 

हृदय मेरा व्यथित भारी ,

क्षमा योग्य अपराध नहीं।

हे शिव शंकर मुझे उबारो ,

अब मन कोई साध नहीं।

 

नेपथ्य में याज्ञवल्क्य-

 

रघुवर ने सती मन पहचाना ,

पश्चाताप भरा मन था।

आँखों में करुणा के अश्रु ,

टूटा हुआ हृदय -तन था।

 

संदेहों की अग्नि बुझी थी ,

मिटे नहीं पर भाग्य के लेखे।

जहाँ -जहाँ सती दृष्टि घुमाती ,

राम -लखन सिय के सँग देखे।

 

ब्रह्मा विष्णु शंकर देखे ,

रघुवर की जो करते पूजा।

श्री शारद अरु सती अनुचरी ,

नहीं राम सम कोई दूजा।

 

लीला के इस अजब खेल में ,

राम सिया मय सब सृष्टि थी।

सती का सब संताप मिटे बस ,

रघुवर की करुणा दृष्टि थी।

 

देख प्रभु की इस लीला को ,

हृदय कंप मन भय था भारी।

आँख मूँद पथ पर ही बैठी ,

करुण दशा में सती बिचारी।

 

पुनः आँख जब सती ने खोलीं ,

सब कुछ पहले जैसा पाया।

बार बार प्रभु का वंदन कर ,

चली जहाँ थी शिव की छाया।

पाँचवा दृश्य –

(सती राम की परीक्षा लेकर ,एवं अत्यंत डरी हुई अवस्था में जहाँ शिवजी बैठे थे पहुँचती हैं )

 

शिव ((मुस्कुराते हुए सती से पूछते हैं )

 

सत्य कहो हे सती सयानी,

कैसे तुमने राम को जाँचा।

कैसे परखे ब्रह्म अनामय ,

कथन कहो तुम बिलकुल साँचा।

 

नेपथ्य में याज्ञवल्क्य

भ्रमित असत्य सती ने बोला ,

भय ,अपराध को मन में धारे।

निज अपराध छुपाने शिव से ,

धर्म सत्य सब सती ने हारे।

 

सती (शिव जी से अपने कृत्य को छुपाते हुए )-

 

परखा नहीं राम रघुवर को,

सत्य कहुँ में तुम से स्वामी।

वचन आपके सत्य सदा हैं ,

मैंने माने अन्तर्यामी।

 

नेपथ्य में याज्ञवल्क्य-

ध्यान में जब शिव ने देखा ,

सती सीता वेष में।

जान कर ये सती माया ,

मन को पाया क्लेश में।

 

शिव (मन में व्यथित होते हुए)-

 

विधि भी न मिटा पाए ,

सती के अज्ञान को।

कौन टाले कौन जाने ,

राम के विधान को।

 

जानकी का रूप लेना ,

सती का अज्ञान है।

अब सती से प्रीति करना ,

भक्ति का अपमान है।

 

क्या करूँ अब हे सियापति ,

सती परम पवित्र है।

प्रेम अब कर सकता नहीं ,

स्थिति बड़ी विचित्र है।

 

नेपथ्य में याज्ञवल्क्य-

हृदय में संताप भर कर,

नाम लेते राम का।

हृदय शिव का अति व्यथित है ,

ध्यान करुणा धाम का।

 

शिव (मन में संकल्प लेकर)

अब सती का तन पराया ,

संग अब न वास होगा।

अब न वामी सती होगी ,

अब न मंगल रास होगा।

 

छटवां दृश्य –

(शिव आगे आगे सती पीछे पीछे कैलाश की ओर प्रस्थान करते हैं दोनो मौन हैं मन में दोनों के भयंकर तूफान उठा है। )

 

नेपथ्य में याज्ञवल्क्य-

फिर हृदय संकल्प लेकर ,

शिव चले कैलाश पथ पर।

मन में सिय राम भजते ,

चले निज आवास पथ पर।

 

देख कर शिव की दशा को ,

हैं भवानी अति दुखित।

चल पड़ीं वो शिव के पीछे ,

कष्ट मन ले हो व्यथित।

 

संकल्प मन में भक्ति पूरित ,

शिव भरे विश्वास से।

आपकी जय हो सदा शिव ,

वाणी हुई आकाश से।

 

कौन ऐसा भक्त होगा ,

संकल्प दृढ़ जिसने लिया

छोड़ कर संसार सारा ,

राम रस जिसने पिया।

 

(रास्ते में शिव ने सती के परित्याग का जो संकल्प लिया है उसकी प्रशंसा में आकाशवाणी होती है )

सुनकर यह आकाश वाणी,

सती चिंतित हैं डरी।

पास में शिव जी के जाकर ,

नेह भर बातें करीं।

 

सती (शिव से पूछते हुए )-

 

कौन सा संकल्प स्वामी ,

आपने मन में धरा।

क्या प्रतिज्ञा आपने ली ,

मन है मेरा अति डरा।

 

सत्य पथ के आप प्रहरी ,

आप ज्ञान सुजान हैं।

हे प्रभु दीनों के रक्षक ,

आप आत्म विधान हैं।

 

क्या हृदय में आपके है ,

सती को बतलाइये।

क्या प्रतिज्ञा घोर है वो ,

विस्तार से समझाइये।

 

नेपथ्य में याज्ञवल्क्य-

 

बहुत विधि पूछा सती ने ,

नहीं कुछ शिव ने बताया।

मौन शिव थे सती चिंतित ,

हुआ रिश्ता अब पराया।

 

हैं विवश लाचार भोले ,

देख कर सती मन व्यथाएँ।

सती मन का कष्ट हरने ,

कहें शिव सुंदर कथाएँ।

 

सातवाँ दृश्य

 

(कैलाश पर पहुँच कर सती अति व्यथित हैं सती जान गईं की शिव ने उनका परित्याग कर दिया है अतः दोनों बिना बोले कैलाश के पथ पर चल रहें हैं,सती व्यथित होकर मन ही मन सोच रहीं है )

 

सती

 

हे प्रभु अब मैंने जाना ,

आप तो सर्वज्ञ हैं।

जो कपट मैंने किया है ,

आप उससे विज्ञ हैं।

 

नाथ मैं नारी अधम हूँ ,

अपराध अति भारी किया।

छल कपट मिथ्या वचन कह ,

पाप अपने सिर लिया।

 

जान कर अपराध मेरा ,

आपने कुछ न कहा।

हे दयालु कृपा सिंधु ,

आपने क्यों दुःख सहा।

 

जानती हूँ आपने अब ,

त्याग मेरा कर दिया।

स्वयं अपने कर्म से ,

दुःख मैंने भर लिया।

 

नेपथ्य में याज्ञवल्क्य-

मौन शिव थे सती आकुल ,

प्रारब्ध के आधीन थे।

कैलाश पर वट वृक्ष नीचे ,

शिव समाधी लीन थे।

 

(पटाक्षेप)

 

काव्यानुवाद- सुशील शर्मा

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