“ज्ञान के सौदागर”,नाटक( सुशील शर्मा)
प्रस्तावना
वर्तमान समय में शिक्षा का उद्देश्य ज्ञान देना नहीं, बल्कि लाभ कमाना होता जा रहा है। निजी विद्यालयों की व्यावसायिक प्रवृत्तियाँ छात्रों और अभिभावकों के लिए बोझ बनती जा रही हैं। खासकर किताबों के नाम पर होने वाली जबरदस्ती न केवल आर्थिक शोषण है, बल्कि यह शिक्षा के मूल उद्देश्य पर सीधा प्रहार है।
“ज्ञान के सौदागर” एक सामाजिक चेतना से परिपूर्ण नाटक है, जो इस समस्या को पाँच दृश्यों में चित्रित करता है। इसमें दिखाया गया है कि किस प्रकार निजी स्कूल अभिभावकों पर महंगी किताबें खरीदने का दबाव डालते हैं, समाज और मीडिया किस तरह से आवाज़ उठाते हैं, और जब जनशक्ति एकत्र होती है तो व्यवस्था में बदलाव की संभावना बनती है।
यह नाटक केवल एक घटना का चित्रण नहीं, अपितु एक चेतावनी है — कि अगर शिक्षा का व्यवसायीकरण रोका नहीं गया, तो ज्ञान केवल पैसेवालों तक सीमित रह जाएगा।
पात्र-विन्यास
1. प्राचार्य एवं स्कूल प्रशासन
एक निजी स्कूल का आत्ममुग्ध प्रशासनिक अधिकारी, जो व्यवसायिक सोच को शिक्षा का नाम देता है।
2. अध्यापक
स्कूल की व्यवस्था का अनुसरण करने वाला शिक्षक, जो विरोध नहीं करता लेकिन भीतर से असहज है।
3. पालकगण
मध्यमवर्गीय, संवेदनशील और विवश अभिभावक — जिनमें एक जोड़ा मुख्य रूप से केंद्र में है।
4. छात्र/छात्रा
मासूम, जिज्ञासु, और परिस्थिति से उलझा बच्चा, जो शिक्षा को समझने की कोशिश कर रहा है।
5. पत्रकार
समाज की आवाज़ उठाने वाला तेज़तर्रार संवाददाता, जो मुद्दे को प्रशासन तक पहुँचाता है।
6. शिक्षा अधिकारी
शासकीय तंत्र का प्रतिनिधि, जो निर्देशों और नियमों की सीमाओं में बंधा है, पर संवेदनशील है।
7. कलेक्टर
प्रशासनिक शक्ति का चेहरा, जो निष्पक्षता और समाधान का प्रतीक बनकर सामने आता है।
8. शिक्षा मंत्री
शासन के प्रतिनिधि, जो जनता की मांग पर सकारात्मक निर्णय लेते हैं।
9. पुस्तक विक्रेता
अंत में पुस्तक मेले में नज़र आता एक सस्ता, सुलभ विकल्प प्रस्तुत करने वाला पात्र।
10. अन्य सहायक पात्र:
अतिरिक्त अभिभावक, छात्र, संवाददाता, दर्शक, सरकारी कर्मचारी आदि।
*दृश्य 1: स्कूल का सभागार — महंगी किताबों का आदेश*
(प्राचार्य एवं स्कूल प्रशासन मंच पर, अभिभावकों की सभा चल रही है)
प्राचार्य एवं स्कूल प्रशासन –
आगामी सत्र से हमारे स्कूल में “ग्लोबल लर्निंग पब्लिकेशन” की पुस्तकें अनिवार्य रूप से लागू की जा रही हैं।
अभिभावक 1:
मगर सर, वही विषयवस्तु दूसरी किताबों में भी है, और वो आधे दाम में मिल जाती हैं।
प्राचार्य (सख़्ती से):
यह निर्णय विद्यालय की गुणवत्ता को ध्यान में रखकर लिया गया है। जो अभिभावक सहमत न हों, वे विकल्प खोज सकते हैं।
अध्यापक:
इन पुस्तकों के साथ एक्स्ट्रा वर्कबुक और ऐप्स भी अनिवार्य हैं। कुल लागत करीब ₹12,000 होगी।
अभिभावक 2:
हम मध्यम वर्गीय लोग हैं, कैसे सम्भव होगा इतना खर्च?
प्राचार्य:
हम आपके बच्चों का भविष्य बना रहे हैं। गुणवत्ता की कीमत होती है।
छात्र:
पापा, मेरी पुरानी किताबें तो पूरी हैं। मुझे फिर क्यों बदलनी हैं?
प्राचार्य:
यह निर्णय बच्चे की भलाई के लिए है। बहस की आवश्यकता नहीं।
अभिभावक 3 (धीरे से):
यह शिक्षा नहीं, व्यवसाय लगता है…
(प्रकाश मंद होता है)
*दृश्य 2: एक अभिभावक का घर — विवशता और चिंता*
पिता:
इस बार तो स्कूल ने हद कर दी। किताबें, यूनिफॉर्म, ऐप सब मिलाकर बीस हज़ार से ऊपर का खर्च!
माता:
गहना बेचकर फीस दी थी, अब किताबें? कहां से लाएँ?
बेटी:
मम्मी, क्या मैं स्कूल नहीं जाऊँ इस बार?
पिता (आँखें डबडबाई):
नहीं बेटा, पढ़ाई रुकेगी नहीं। हम कुछ न कुछ करेंगे।
माता:
क्यों ना मिलकर स्कूल से बात करें?
पिता:
बात करने पर धमकी मिलती है कि बच्चा निकाल दिया जाएगा। ये कैसा शिक्षातंत्र है?
बेटा:
पापा, क्या शिक्षा अब अमीरों की चीज़ हो गई है?
(घर में तनावपूर्ण सन्नाटा)
*दृश्य 3: प्रेस कॉन्फ़्रेंस — पत्रकार और अधिकारी*
पत्रकार:
हमारे पास दर्जनों शिकायतें हैं — निजी स्कूल किताबों के नाम पर लूट मचा रहे हैं।
पालक प्रतिनिधि:
हम कोई सुविधा नहीं माँग रहे, सिर्फ़ शिक्षा को सुलभ बनाए रखने की अपील कर रहे हैं।
शिक्षा अधिकारी:
हमने स्कूलों को निर्देश दिए थे कि किताबों की सूची स्वविवेक से रखें। नियमों की अनदेखी गंभीर है।
दूसरा पत्रकार:
तो फिर कार्यवाही कब होगी? या ये सिर्फ़ कागज़ों तक सीमित रहेगा?
शिक्षा अधिकारी:
हम इस पूरे मामले की रिपोर्ट बनाकर कलेक्टर महोदय को सौंपेंगे।
एक वरिष्ठ पत्रकार:
शिक्षा का बाजारीकरण देश के भविष्य से खिलवाड़ है।
*दृश्य 4: शिक्षा मंत्री से भेंट — जनशक्ति की पुकार*
पालक:
मान्यवर, हमारी अपील है — निजी स्कूल शिक्षा के नाम पर शोषण कर रहे हैं। कृपया हस्तक्षेप करें।
शिक्षा मंत्री:
मुझे खेद है कि ऐसी परिस्थिति बनी। शिक्षा सेवा है, व्यापार नहीं।
पत्रकार:
आपके हस्तक्षेप से ही नीति में बदलाव आएगा।
मंत्री:
मैं तुरन्त कलेक्टर को जांच के निर्देश दूँगा और निर्देश दूँगा कि पुस्तक मेला लगाकर सस्ती किताबें उपलब्ध कराई जाएँ।
पालक:
साथ ही स्कूलों को नियमबद्ध करने की आवश्यकता है।
मंत्री:
बिलकुल। नया परिपत्र जारी होगा — किताबें सुझाई जाएँगी, थोपी नहीं जाएँगी।
(तालियों की गूंज)
*दृश्य 5: कलेक्टर की कार्यवाही — बदलाव की शुरुआत*
*कलेक्टर:*
जाँच में दोषी पाए गए पाँच स्कूलों पर ₹50,000 का जुर्माना और चेतावनी जारी की गई है।
*पत्रकार:*
और सस्ती किताबों के लिए?
*कलेक्टर:*
हमने पुस्तक मेला प्रारम्भ कर दिया है, जहाँ एनसीईआरटी एवं अन्य स्वीकृत प्रकाशनों की किताबें रियायती दरों पर मिलेंगी।
*पालक:*
धन्यवाद! अब हमें विकल्प मिला है।
*प्राचार्य* (सभी से क्षमा मांगते हुए):
अब हम अभिभावकों को सुझाव देंगे, दबाव नहीं डालेंगे हम वादा करते हैं हम शिक्षा को व्यवसाय नहीं बनाएंगे।
*छात्र:*
पिताजी अब हम भी वही किताबें पढ़ पाएँगे जो अमीर बच्चे पढ़ते हैं।
*अभिभावक* – हां बेटे अब तुम अच्छी शिक्षा प्राप्त करोगे।
*शिक्षा मंत्री* (वीडियो संदेश):
शिक्षा सबकी है — प्रिय पालकों इसकी पहुँच हर घर तक हो, हर बच्चा स्कूल जाएगा मुफ्त एवं अच्छी शिक्षा पायेगा ।
यही हमारा उद्देश्य है।
(पर्दा गिरते समय मंच पर एक बोर्ड उभरता है:
“शिक्षा अधिकार है, व्यापार नहीं।”
और संगीत की मधुर धुन बजती है)
पटाक्षेप
✒️सुशील शर्मा ✒️