मजदूर कहाँ होते हैं
(अतुकान्तिका)
मजदूर होते ही कहाँ हैं
होतीं हैं उनकी।
काम पाने की आशा भरी सुबह।
पसीने से तरबतर दोपहर
फटे थैले में एक किलो आटे भरी शाम।
बच्चों के साथ रोटी बांटती रात।
मजदूर बीमार नहीं होते
बुखार में भी सीमेंट से भरे तसले को
ले आते हैं तीसरी मंजिल पर।
मजदूरों का बचपन नहीं होता
उनका बचपन
ठेकेदार की गालियों और
दुकान की झूठन साफ
करते हुए निकल जाता है।
मजदूरों की शादियाँ नहीं होतीं
बस चुन लेते हैं एक साथी
जो काम करके कुछ पैसे कमाए।
मजदूरों के पास मकान नहीं होते हैं
बस एक छोटा घर होता है
जिसमें वो सिर्फ रात को बैठ
कर सुकून की एक रोटी खाते हैं।
मजदूरों का कोई देश नहीं होता है
न राज्य होता है न कोई शहर।
बस एक वोट होता है
जिसे वो लोग चुरा कर डरा कर ले लेते हैं
जो भाग्य विधाता हैं।
मजदूरों के पास सिर्फ सरलता होती है,
स्वाभिमान होता है।
जो उनके पास कुछ भी
न होने से ज्यादा कीमती होता है।
सुशील शर्मा