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April 29, 2024
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जीवन जीना, जीवन को जीतना, भेद कितना, मुनि श्री निरंजन सागर जी

जीवन जीना, जीवन को जीतना, भेद कितना, मुनि श्री निरंजन सागर जी
कुंडलपुर ।प्रत्येक प्राणी जन्म को प्राप्त होता है और मरण को भी। परंतु जन्म से मृत्यु की यात्रा को सफल हर कोई नहीं बना पाता। क्यों नहीं बना पाता? यह प्रश्न खड़ा होता है ।जन्म तो सभी प्राणियों ने लिया है। परंतु जन्म लेकर उन्होंने क्या किया ।यह बड़ा महत्वपूर्ण बिंदु है ।हम हमारे जीवन में कई कार्य करते हैं उन सभी कार्यों को करते समय कभी अंदर से यह आवाज आती है कि मैं यह कार्य क्यों कर रहा हूं ।यह अंदर से जो क्यों (?)नामक प्रश्न है.। यही जीवन विज्ञान का आधार है ।जन्म से लेकर मरण तक की यात्रा का चक्र अनवरत चल रहा है ।84लाख योनियों हैं। और इन योनियों को पाकर हमने क्या किया ।साइंस ऑफ लिविंग अर्थात जीवन विज्ञान को जिसने समझ लिया उसने जीवन का रहस्य समझ लिया ।आज अच्छे-अच्छे दार्शनिकों को आप पढ़ते हैं ,सुनते हैं ,देखते हैं ।उन दार्शनिकों के विचार भी बड़े अजीब से है। एक दार्शनिक ने यहां तक कहा कि लाइफ इज प्वांटलेस अर्थात जीवन शून्य है। जीवन आखिरकार है क्या? और जीवन की सफलता का मापदंड क्या है ?यह कुछ ऐसे सनातन प्रश्न है जिनकी खोज युगों से चल रही है ,और खोजकर्ता अपने हिसाब से इनके उत्तर खोज कर अपनी खोज को सफल बनाने पर जुटे हैं। जीवन को आचार्यों ने बहुत सहज शैली में परिभाषित किया है। जिसका भी अर्थात मन वन अर्थात जंगल में भी लग जाए वह जीवन है ।इस जीवन की सफलता का मापदंड भी आचार्यों ने स्पष्ट दिया है ।अपने आत्म तत्व की उपलब्धी प्राप्ति ही सफल जीवन का मापदंड है ।जिस प्राणी को किसी भी वस्तु से ना राग है, ना द्वेष है और ना ही मोह है। ऐसे प्राणी का जीवन ही वाकई में जीवन है ।वरना तो संसारी प्राणी यहां वहां अपना मन लगाता रहता है ।इस मन के रंजन में ही प्राणी ने अपने अमूल्य जीवन को लगा रखा है ।इसी मनोरंजन के कारण ही आज तक उसने अपने में निरंजन तत्व की अलख नहीं जगा पाया है ।इस निज निरंजन आत्म तत्व की प्राप्ति में सबसे बड़ा बाधक तत्व है संसार से प्रीति ।यह संसार से प्रीति जिस दिन संसार से भीति में परिवर्तित हो जाएगी ।उस दिन आपको अपने आप इस जीवन का रहस्य समझने में आने लगेगा ।दर्शन कारों की सोच जहां विराम को प्राप्त होती है वहां पर जैनाचार्यों की सोच प्रारंभ होती है ।इतना सूक्ष्म विवेचन ,इतना गहरा चिंतन अन्य कहीं नहीं भी देखने सुनने और पढ़ने को नहीं मिलता। हम सभी का परम आवश्यक कर्तव्य है कि पूर्वाचार्यों की वाणी को पढ़ें, समझे ,जाने और यथाशक्ति अपने जीवन में उतारने का प्रयास करें। जीवन को मात्र जिए ही नहीं अपितु जीतने का भी प्रयास करें। जिसने जीने और जीतने के भेद को समझ लिया उसका जीवन शीघ्र ही सार्थक अर्थ तक पहुंच जाता है ।वरना तो यह जन्म मरण का चक्र कभी समाप्त होने वाला नहीं है। कितने पुण्य और पुरुषार्थ से यह मनुष्य योनि मिली है। इसकी सार्थकता नर से नारायण बनने में ही है ।ना कि नर से नार की बनने में ,और ना ही नर से वानर (पशु) बनने में।
संकलन —-जयकुमार जैन जलज

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