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May 5, 2024
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सामाजिक

पत्रकारिता का साहित्य में योगदान पं. सुशील शर्मा की कलम से

पत्रकारिता का साहित्य में योग दान

(आलेख )सुशील शर्मा

साहित्य अर्थ है, सबका कल्याण। सः हितः. यानी ऐसी युक्ति ऐसा नियोजन, ऐसा माध्यम, ऐसी संप्रेरणा जिसके पीछे किसी एक वर्ग-जाति-धर्म-समाज-समूह-संप्रदाय-देश के बजाय समस्त विश्व-समाज के कल्याण की भावना सन्निहित हो। साहित्यकार के पास भरपूर कल्पनाशीलता और विश्वदृष्टि होती है। अपनी नैतिक चेतना से अभिप्रेत, कल्पनाशीलता के सहयोग से वह श्रेयस् के स्थायित्व एवं उसकी सार्वत्रिक व्याप्ति के लिए शब्दों तथा अभिव्यक्ति के अन्य माध्यमों द्वारा प्राणीमात्र के कल्याण का प्रयोजन रचता रहता है। भारत में छपाई मशीन 1674 में ही आ चुकी थी, किंतु अख़बार-प्रकाशन के लिए 102 वर्ष का लंबा इंतज़ार करना पड़ा। 1776 में विलेम बाल्ट नामक अँग्रेज़ ने ईस्ट इंडिया कंपनी के समाचारों को लोगों तक पहुँचाने के लिए अँग्रेज़ी में अख़बार निकालना आरंभ किया। भारत का पहला समाचारपत्र जिसमें समाचारों की विविधता के साथ स्वतंत्र अभिव्यक्ति को भी महत्त्व दिया गया था। हिंदी के पहले साप्ताहिक ‘उदंत मार्तंड’ का प्रकाशन 1826 में कलकत्ता की हवेली नंबर 37, आमड़तल्ला गली, कोलू टोला नामक स्थान से हुआ था। संपादक थे- जुगलकिशोर मुकुल। पहला अंक 30 मई, 1826 को बाज़ार में पहुँचा। इसके बाद तो वह प्रत्येक मंगलवार को पाठकों के दरवाज़े पर दस्तक देने लगा। पत्र के प्रथम अंक से ही पत्रकारिता और हिंदी साहित्य के शाश्वत रिश्ते का संकेत मिलता है।

पत्रकारिता और साहित्य एक सिक्के के दो पहलू हैं। दोनों के लिए तथ्य और तत्व की ज़रूरत होती है, जो समाज से ही प्राप्त होते हैं। साहित्यिक पत्रकारिता वास्तविक कथा का एक रूप है जो कथात्मक तकनीकों और शैलीगत रणनीतियों के साथ तथ्यात्मक रिपोर्टिंग को पारंपरिक रूप से कथा साहित्य से जोड़ती है। लेखन के इस रूप को कथात्मक पत्रकारिता या नई पत्रकारिता भी कहा जा सकता है। साहित्यिक पत्रकारिता शब्द का उपयोग कभी-कभी रचनात्मक रूप से गैर-काल्पनिक कथाओं के साथ किया जाता है। एँथोलॉजी द लिटररी जर्नलिस्ट्स में, नॉर्मन सिम्स ने लिखा है साहित्यिक पत्रकारिता “जटिल, एवं कठिन विषयों में विसर्जन की माँग करती है। विश्व स्तर पर मीडिया पर विज्ञापनों का दबाव बढ़ने के कारण साहित्यिक पत्रकारिता हाशिए पर चली गयी है, जो कि देश और समाज के लिए बेहद निराशाजनक है। हिन्दी में महावीर प्रसाद द्विवेदी ने खड़ी बोली गद्य का विकास हिंदी पत्रकारिता के माध्यम से ही किया। साथ ही दुनियाभर के मुद्दों से पाठकों को परिचित करवाया। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान तिलक और गाँधी जी ने प्रतिरोध की पत्रकारिता की, जिसकी वज़ह से उन्हें जेल जाना पड़ा। उस समय पत्रकारिता ने ही सबसे पहले स्वदेशी और बंगाल विभाजन जैसे ज्वलंत मुद्दों को उठाया था। साहित्यिक पत्रकारिता ही उस समय मुख्य धारा की पत्रकारिता थी। लेकिन आज हालात एकदम बदल गये हैं। उन्होंने कहा कि साहित्यिक पत्रकारिता ने पत्रकारिता की विश्वसनीयता इतनी मज़बूत बना दी थी कि लोग अख़बार में लिखी गई ख़बर को झूठ मानने को तैयार ही नहीं होते थे। बाद के दौर में विज्ञापनों के दबाव के चलते साहित्यिक पत्रकारिता हाशिए पर जाने लगी। साहित्य और पत्रकारिता को सामाजिक मान्यता तभी मिलती है, जब वह समाज के विभिन्न वर्गों में समन्वय और सद्भाव की बात करे। नैतिक मूल्यों से आबद्ध साहित्यकार और पत्रकार केवल प्रचार अथवा सत्ताप्राप्ति की लालसा में ऐसा कोई कार्य नहीं कर सकता जो मानवादर्शों के विपरीत हो। अपनी व्याप्ति को व्यापक, स्थायी एवं संग्रहणीय बनाने के लिए साहित्य रसज्ञता का गुण रखता है।

भारतेंदु हरिश्चंद्र ने ही आगे चलकर हरिश्चंद्र मैग्जीन, बाला बोधिनी, हरिश्चंद्र चंद्रिका पत्रिकाएँ निकालीं। उनसे प्रेरणा लेकर अन्य पत्रकारों-साहित्यकारों ने भी समाचारपत्र-पत्रिकाओं के संपादन-प्रकाशन का दायित्वभार सँभाला। हिंदी के कुछ प्रमुख आरंभिक पत्र, पत्रिकाओं में हिंदी प्रदीप (बालकृष्ण भट्ट), आनंद कादंबिनी (चौधरी बद्रीनारायण प्रेमधन), ब्राह्मण (प्रतापनारायण मिश्र), भारत मित्र (रुद्रदत्त शर्मा), सरस्वती (महावीर प्रसाद द्विवेदी) आदि प्रमुख हैं। इसके बाद तो उनकी बाढ़-सी आ गई। काशी की नागरी प्रचारिणी सभा के प्रबंधन में- नागरी प्रचारिणी पत्रिका, विशाल भारत, चांद, मतवाला, इंदु, माधुरी, हंस, सरस्वती आदि पत्रिकाएँ हिंदी साहित्य के प्रचार-प्रसार का आधार बन गईं। यह सिलसिला लगातार आगे, देश के दूसरे हिस्सों में भी फैलता चला गया।

सिम्स के अनुसार, कुछ लचीले नियम और सामान्य विशेषताएँ साहित्यिक पत्रकारिता को परिभाषित करती हैं। “साहित्यिक पत्रकारिता की साझा विशेषताओं में विसर्जन रिपोर्टिंग, जटिल संरचनाएँ, चरित्र विकास, प्रतीकवाद, आवाज़, सामान्य लोगों पर ध्यान केंद्रित करनाऔर सटीकता प्रमुख हैं।

साहित्यक पत्रकारिता की कुछ विशिष्टताएँ निम्नांकित हैं

साहित्य के पत्रकार खुद को विषयों की दुनिया में डुबो देते हैं

साहित्यिक पत्रकार सटीकता और स्पष्टवादिता के बारे से कथा का वर्णन करते हैं।

साहित्यिक पत्रकार ज़्यादातर नियमित घटनाओं के बारे में लिखते हैं।

साहित्यिक पत्रकार पाठकों की क्रमिक प्रतिक्रियाओं से अर्थ विकसित करते हैं।

साहित्यिक पत्रकारों को जटिल चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। उन्हें तथ्यों को वर्तमान घटनाओं के आधार पर वर्णित कर उन्हें इस तरह पेश करना पड़ता है जो संस्कृति, राजनीति और जीवन के अन्य प्रमुख पहलुओं के बारे में बहुत बड़ी तस्वीर के सच को बयां करती हैं। साहित्यिक पत्रकार, को अन्य पत्रकारों की तुलना में प्रामाणिकता से अधिक बँधा हुआ रहना पड़ता है।

 

भूमंडलीकरण और उपभोक्तावाद के आने के बाद से मीडिया में अपराध, सेक्स और दुर्घटनाओं की ख़बरों को ज़्यादा महत्व दिया जाने लगा है। इसका कारण यह है कि इसे साधारण पाठक भी सरलता से समझ लेता है, जबकि साहित्यिक पत्रकारिता को समझने में उसे कुछ मुश्किल आती है। लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि संपादकीय और साहित्यिक पृष्ठ पढ़नेवाले 10-12 प्रतिशत पाठक ही समाज का नेतृत्व करते हैं। इसलिए संचार माध्यमों में साहित्यिक और वैचारिक सामग्री को रोका नहीं जा सकता है। मुक्त अर्थव्यवस्था आने के बाद से मीडिया में संपादक की जगह ब्रांड मैनेजर लेने लगे। ये मैनेजर अख़बार को ऐसा उत्पाद बनाने लगे जिसे विशाल जनसमूह ख़रीदे। इस वज़ह से साहित्यिक और सांस्कृतिक विमर्श हाशिए पर चले गए। समाज बदल गया है, इसलिए पत्रकारिता भी बदली है। हमें साहित्य और पत्रकारिता में एक सामंजस्य बनाना होगा। साहित्य को पत्रकारिता में संस्कार भरने का काम करना चाहिए और पत्रकारिता को साहित्य को लोकप्रिय बनाने में योगदान देना चाहिए। हिंदी साहित्य को ज़िंदा रखने में पत्रिकाओं का बहुत योगदान है। धर्मयुग साप्ताहिक पत्रिका थी। यह पत्रिका “टाइम्स ऑफ़ इंडिया” ग्रुप द्वारा मुंबई से प्रकाशित होती थी। यह पत्रिका 1949 से लेकर 1993 तक प्रकाशित हुई थी। अपने दौर में यह पत्रिका पत्रकारिता और साहित्य में रुचि रखने वालों की अलख को ज़िंदा रखने का काम बख़ूबी करती थी। दूसरी पत्रिका हंस थी जो हिंदी साहित्य के रत्न कहे जाने वाले “मुंशी प्रेमचंद” ने इस पत्रिका को प्रकाशित किया था। इस पत्रिका के संपादक मंडल में महात्मा गाँधी भी रह चुके हैं। साहित्यकार राजेंद्र यादव ने प्रेमचंद के जन्मदिन के दिन ही 31 जुलाई 1986 को अक्षर प्रकाशन के तले इस पत्रिका को पुन: शुरू किया था। हिंदी साहित्य में “आलोचना” को स्थापित करने का श्रेय नामवर सिंह को जाता है। आपको बता दें कि “आलोचना” एक त्रैमासिक पत्रिका है एवं इसके प्रधान संपादक नामवर सिंह थे। इसका संपादन अरुण कमल सँभाल रहे हैं। यह पत्रिका हिंदी साहित्य में आलोचना को ज़िंदा रखे हुए है। अगस्त 2015 में नया ज्ञानोदय पत्रिका का 150वां अंक आया था। यह साहित्यक पत्रिका नई दिल्ली के भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित की जाती है। पहले इसका संपादन साहित्यकार रवीन्द्र कालिया देखते थे लेकिन उनके इंतकाल के बाद लीलाधर मंडलोई इसके संपादन का कार्यभार सँभाल रहे हैं। “पाखी” यह मासिक पत्रिका है। इसके संपादक प्रेम भारद्वाज हैं। सिंतबर 2008 से इसका प्रकाशन शुरू हुआ था। इसका लोकार्पण नामवर सिंह ने किया था। अहा! ज़िंदगी यह पत्रिका साहित्य, सिनेमा, संस्कृति और कला के अन्य आयामों को थामे चल रही है। यह पत्रिका दैनिक भास्कर समूह द्वारा प्रकाशित की जाती है। आलोक श्रीवास्तव इसके संपादक हैं। जाने-माने पत्रकार एवं कवि मंगलेश डबराल का कहना था कि पत्रकारिता इतिहास का पहला ड्राफ़्ट होती है और साहित्यिक रचना अंतिम ड्राफ़्ट होती है। उन्होंने कहा कि इलेक्ट्रानिक मीडिया में हत्या, बलात्कार, आपदा और झगड़े की ख़बरें भी मनोरंजन बन गई हैं। हिंदी पत्रकारिता हिंदी साहित्य से ही निकली है। भारतेंदु हरिश्चंद्र से लेकर रघुवीर सहाय तक साहित्यकारों ने इसमें महत्वपूर्ण योगदान किया। हिन्दी के जाने-माने कवि लीलाधर जगूड़ी ने कहा कि केवल बाज़ार को कोसने से कुछ नहीं होगा। बाज़ार तो हज़ारों वर्षों से हमारी संस्कृति का अंग रहा है। यह भी सच है कि वैश्विक बाज़ार से हमारे स्थानीय बाज़ार को पंख लगे हैं। इसलिए बाज़ार का नहीं, अनैतिक बाज़ार का विरोध होना चाहिए।

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