वृद्ध दिवस पर विशेष सुशील शर्मा की कलम से
इक्कीसवी सदी में वृद्धों की संख्या में अभूतपूर्व वृद्धि होने की सम्भावना है। विकसित राष्ट्रों में स्वास्थ्य एवं समुचित चिकित्सीय सुविधा के चलते व्यक्ति अधिक वर्षों तक जीवित रहतें हैं अतः वृद्धों की जनसँख्या विकासशील राष्ट्रों से ज्यादा विकसित राष्ट्रों में ज्यादा है। भारत एवं चीन जो कि विश्व की जनसँख्या का अधिकांश का हिस्सा रखते हैं इनमे भी बेहतर स्वास्थ्य एवं चिकित्सा सुविधा के चलते वृद्धों की जनसँख्या में बेतहाशा वृद्धि हुई है। 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में वृद्धजनों की संख्या 10. 38 करोड़ है।
संस्कृतियों में वृद्धावस्था विद्वता एवं जीवन के अनुभवों का खजाना माना जाता रहा है लेकिन वर्तमान में यह अवांछनीय प्रक्रिया माना जाता है। परम्परागत रूप से हर संस्कृति में वृद्धों की देखभाल परिवार की जिम्मेदारी मानी जाती हैं लेकिन सामाजिक परिवर्तनों के चलते अब यह राज्य एवं स्वशासी संघटनों की भी जिम्मेवारी बन चुकी है। भारतीय संस्कृति में वृद्धों को अत्यंत उच्च एवं आदर्श स्थान प्राप्त है श्रवण कुमार ने अपने वृद्ध माता पिता को कंधें पर बिठा कर सम्पूर्ण तीर्थ यात्रा करवाईं थीं। आज भी अधिकांश परिवारों में वृद्धों को ही परिवार का मुखिया माना जाता है। कितनी विडंबना है की पूरे परिवार पर बरगद की तरह छाँव फैलाने वाला व्यक्ति वृद्धावस्था में अकेला असहाय एवं बहिष्कृत जीवन जीता है। जीवन भर अपने मन क्रम वचन से रक्षा करने वाला ,पौधों से पेड़ बनाने वाला व्यक्ति घर में एक कोने में उपेक्षित पड़ा रहता है या अस्पताल या वृद्धाश्रम में अपनी मौत की प्रतीक्षा करता है आधुनिक उपभोक्ता संस्कृति एवं सामाजिक मूल्योंके क्षरण की यह परिणिति है। आज के वैश्विक समाज में वृद्धों को अनुत्पादक,दूसरों पर आश्रित ,सामाजिक स्वतंत्रता से दूर अपने परिवार एवं आश्रितों से उपेक्षित एवं युवा लोगों पर भार की दृष्टि से देखा जाता है। जब तक हम वृद्ध जनों की कीमत नहीं समझेंगें उस उम्र की पीड़ा का अहसास नहीं करेंगे तब तक हमारी सारी अच्छाइयाँ बनाबटी होंगी।
सुशील शर्मा