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May 12, 2024
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नरसिंहपुर,कल्याण का पर्व है महाशिवरात्रि – स्वामी सदानंद सरस्वती महाराज

शिव शब्द ही कल्याण का पर्याय है। अमरकोश कार ‘श्वःश्रेयसं शिवं भद्रं कल्याणं मंगलं शुभम् ‘ कहकर इन सभी शब्दों को समानार्थक कहते हैं।

हमारा कल्याण हो। हमारा मंगल हो। हमारा शुभ हो। यह कौन नहीं चाहता? यदि आपके मन में भी यह कामनाएं हैं तो आपको शिवाराधन करना चाहिए। शिव आराधना का सबसे बड़ा पर्व महाशिवरात्रि है। शिवपुराण की कोटि रुद्र संहिता में इस पर्व को विस्तार से बताया गया है।

वैसे तो प्रचलित अर्थ में ‘रात्रि’ तात्पर्य सूर्य किरणों की अनुपस्थिति वाले काल से है। पर महाशिवरात्रि, नवरात्रि आदि शब्दों में उच्चरित रात्रि शब्द का तात्पर्य -‘राति ददाति शुभम् अवसरं इति रात्रि:’ ही होता है। इसका मतलब भगवान शिव की कृपा प्राप्त करने का अवसर देने वाला महान पर्व।

इस दिन- ‘शिवरात्रिव्रतं ह्येतत् करिष्येऽहं महाफलम्। निर्विघ्नमस्तु मे नाथ त्वत्प्रसादाज्जगत्पते’ कहकर संकल्प करें। फिर व्रतपूर्वक शिव पूजा करें तो भगवान शिव अवश्य अभीष्ट फल प्रदान करते हैं।

वैसे तो शास्त्रोक्त किसी भी शिवलिंग में पूजा करने से शिव जी प्रसन्न होते हैं। पर शास्त्रों में स्फटिक शिवलिंग के पूजन को विशेष कहा गया है।

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यह बताया गया है कि अन्य धातुओं से निर्मित शिवलिंग एक कामना की पूर्ति करने में समर्थ होता है। लेकिन स्फटिक शिवलिंग पूजा करने वाले की समस्त मनोकामनाएं पूरी कर देता है। यही कारण है कि पूज्यपाद ज्योतिष्पीठाधीश्वर एवं शारदा पीठाधीश्वर जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती जी महाराज ने देश भर में अनेक स्थानों पर शिव मंदिरों का निर्माण किया है उनमें से अधिकांश में स्फटिक शिवलिंग की स्थापना की है।

मध्य प्रदेश के सिवनी जिले के दिघोरी नामक स्थान में गुरु रत्नेश्वर शिवलिंग, परमहंसी गंगा आश्रम नरसिंहपुर मध्य प्रदेश में सिद्धेश्वर शिवलिंग, तोटकाचार्य गुफा ज्योतिर्मठ में ज्योतिरीश्वर शिवलिंग, अहमदाबाद के अद्वैत आश्रम। में अद्वैतेश्वर शिवलिंग और पश्चिम बंगाल के बांकुड़ा जिले में स्थापित देवदेवेश्वर शिवलिंग प्रमुख उदाहरण है।

स्फटिक शिवलिंग में पूजा से जहां पूजक की समस्त मनोकामनाएं पूरी होती हैं। वहीं यदि दार्शनिक दृष्टि से देखें तो स्फटिक शिवलिंग अपना अलग ही महत्व प्रदर्शित करता है। स्फटिक की विशेषता क्या है? स्फटिक की विशेषता यह है कि वह स्फटिक शिवलिंग में अपना कोई रंग नहीं होता।

जिस वस्तु को उसके पास रख दिया जाएगा शिवलिंग उसी के को प्रतिबिंबित कर देगा। वह गुण दोष रहित है। जिस प्रकार ज्ञान विशुद्ध होता है। उसी प्रकार स्फटिक लिंग है। उसके पीछे हरे बिल्वपत्र को रखा जाए तो स्फटिक शिवलिंग हरे रंग का दिखाई देगा।

लाल फूल को रख दिया जाए तो लाल दिखेगा। इसी तरह पीले फूल के पास आते ही पीला दिखाई देने लगेगा। वह स्वयं निर्विकार है। परम ब्रह्म स्वरूप भी निर्विकार है। लेकिन हम अपने मनोभाव को जैसा रखते हैं। वैसा ही दिखाई पड़ेगा।

इसका एक सुंदर दृष्टांत यह स्फटिक शिवलिंग है। वह किसी को छुपाता नहीं। उसके पीछे की वस्तु को भी उस के माध्यम से देखा जा सकता है। वह परम शुद्ध और निष्कलंक है। निर्गुण परमात्मा तत्व का वह दृष्टान्त है।

कहा गया है कि शिव ने अपने शीर्ष पर पूर्णेन्दु धारण किया है। पूर्णेन्दु अर्थात पूर्ण चंद्रमा। जब ईश्वर अपने ‘सकल’ रूप में यानी जटा, गंगा, नेत्र, कान, नाक, हाथ , पैर और शरीर के अन्य अंगों के साथ दृश्यमान होते हैं। वहां से तृतीया के चंद्र को धारण कर चंद्रमौलि बन जाते हैं।

जब परमात्मा ‘निष्कल’ रूप में होते हैं तब चंद्रमा, गंगा आदि कुछ भी नहीं होता। तब वे अवयवों सहित ना होकर लिंग रूप में सकल और निष्कल होते हैं। तब वह पूर्ण चंद्रमा को शीर्ष पर धारण किए होते हैं। उसमें अमृत ही गंगा की तरह नि:सृत होता है।

योगी अपने शीर्ष में सहस्रार कमल के चंद्र मंडल में ज्योति स्वरूप का ध्यान किया करते हैं। उसे चंद्र बिम्ब से अमृत झरता है। उससे उन्हें परम आनंद प्राप्त होता है।

समस्त प्रपंच स्वरूप ज्योतिर्लिंग यदि शीतल होगा तो समस्त लोक शीतल होगा। इसीलिये शिवलिंग का अनवरत अभिषेक किया जाता है। जिसे रुद्राभिषेक के नाम से जाना जाता है।

यह सकल ब्रह्मांड शिवलिंग ही है। ऐसा रुद्र अध्याय में निरूपण है। वहां यह भी कहा गया है कि सब पदार्थ चाहे वह शुभ हों या अशुभ, सब शिवस्वरूप हैं।

लिंग गोल क्यों होता है? गोलाकार स्वरूप का ही तो नीचे ऊपर नहीं होता। कोई आदि कोई अंत नहीं होता। अन्य रूपों में वह होता है। त्रिभुज और वर्ग में होता है। लिंग का आकार दर्शाता है कि शिव का आदि और अंत नहीं है। ध्यान देने की बात यह है कि शिवलिंग पूरी तरह से गोल ना होकर वृत्ताकार होता है। आधुनिक विज्ञान का यह कहना है कि सौर मंडल ले लें तो ग्रहों का संचालन दीर्घ वृत्तीय होता है। और शास्त्रों का यह कहना कि सृष्टि ‘आविस्पूरित’ है। इस लिंग रूप से बहुत समानता रखता है।

अपने किसी बंधु को जब हम याद करते हैं तो हमें आनंद की अनुभूति होती है। लेकिन जब उसे हम देख लेते हैं तो हमारा आनंद अत्यधिक बढ जाता है। उसी तरह से शिव भी जब स्वरूप धारण कर हमारे सामने आ जाते हैं, अनुग्रह करते हैं तब हमारा आनंद कई गुना हो जाता है।

निराकार स्वरूप का साक्षात्कार ज्ञानियों को ही होता है। लेकिन साकार स्वरूप को देख देख कर हर कोई आनंद प्राप्त करते हैं। इसलिए निराकार परमेश्वर साकार ज्योतिर्लिंग तक ही न रुक कर उस लिंग में ही दिव्य रूप दिखाने वाले लिंगोद्भव मूर्ति बन जाते हैं। इस प्रकार दिखाएं रूप दिखाने पर भी यह स्पष्ट करने के लिए कि वास्तव में उनके न पद हैं न जटाएं। अर्थात वे एक ऐसी आनंदमूर्ति हैं जिसका न आदि है ना अंत। उनकी जटाएं लिंग के वृत के बाहर हैं और पद भी उस वृत्त के बाहर ही हैं।

पद और जटा की सीमाओं के बगैर वे ज्योतिस्वरूप में उपस्थित हैं। ज्योतिर्लिंग के रूप में जब परमेश्वर आकाश से पृथ्वी पर प्रकट हुए वह रात्रि ही शिवरात्रि कही गई है।

परमेश्वर जब ज्योति स्वरूप स्थित थे तब विष्णु उनके पदों को देखने के लिए पाताल को गए। भूमि को खोदने का स्वभाव वाराह में होता है। विष्णु ने वाराह रूप धारण किया। ब्रह्मा हंस स्वरूप बने। पक्षी का स्वभाव ऊपर उड़ान भरने का होता है। वे पक्षी के रूप में उड़कर ज्योतिर्लिंग के शीर्ष की खोज में गए। दोनों ही जिस जिस की खोज में गए वह तो उन्हें मिला नहीं। हंस लौटा और झूठ कहा कि मैंने देख लिया। इसीलिए ब्रह्मा की अलग से पूजा नहीं की जाती।परिवार के अंग के रूप में ही होती है। यह बात पुराणों में बताई गई है।

ब्रह्मा ने हंस स्वरूप में जाकर खोज की पर उन्हें परमेश्वर का शीर्ष नहीं दिखा। विष्णु ने वाराह के रूप में खोज की और उन्हें परमेश्वर का पांव नहीं दिखा। यह कहने का तात्पर्य यही है कि परमात्मा आदि अंत रहित है। यही कि वे सृष्टि परिपालन के परे की वस्तु हैं।

इस पद शिखा ढूंढने निकले ब्रह्मा, विष्णु के लिए भी अलभ्य है उनकी ही ‘मैं अपनी सामर्थ्य से जान सकता हूं’ ऐसा अहंकार ना करते हुए भक्ति की जाए तो बड़ी सुलभता से वे हमें प्राप्त हो सकते हैं।

भगवान शिव प्रेम से बड़ी व जल्दी प्रसन्न होकर अनुग्रह करते हैं। उनका एक नाम आशुतोष भी है। आशु का तात्पर्य होता है शीघ्र। तोष का मतलब है तो संतुष्ट होने वाला। जो जल्दी प्रसन्न हो जाए उसी का नाम आशुतोष है। भगवान शिव अत्यंत उदार तो हैं ही।

कहना होगा कि सकल सृष्टि जिसमें समाविष्ट है ऐसा लिंग रूप महा चतुर्दशी की रात्रि को आविर्भूत हुआ। हमें उसका अनवरत ध्यान करना चाहिए और निमग्न हीना चाहिए। इससे बडा आनन्द कुछ नहीं हो सकता।

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