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May 2, 2024
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धर्म

दक्ष यज्ञ विनाशनी (काव्य नाटिका ) पात्र -सती ,शिव,विष्णु ,ब्रह्मा ,दक्ष ,वीरभद्र 

दक्ष यज्ञ विनाशनी

(काव्य नाटिका )

पात्र -सती ,शिव,विष्णु ,ब्रह्मा ,दक्ष ,वीरभद्र

प्रथम दृश्य

स्थान -कैलाश ,शिव जी सती का परित्याग करके अखंड समाधी में लीन थे ,सती दुःख में भरी शिव जी के सामने विलाप कर रहीं हैं ।

सती (विलाप करते हुए )-

किया कर्म जो मैंने स्वामी ,

अधम अनर्थों वाला है।

किन्तु विधाता क्यों न तुमने ,

देह से जीव निकाला है।

 

शंकर विमुख सती जीवित क्यों ,

दिन युग जैसे बीतें अब।

हे नारायण दया करो प्रभु ,

प्राण देह से रीतें कब।

 

मन क्रम वचन धर्म शिव रत हैं ,

यदि मैं शिव की अनुगामी।

हाथ जोड़ है मेरी विनती ,

प्राण तजूँ में हे स्वामी।

 

हे प्रभु मरण सुनिश्चित कर दो ,

पीड़ा सारी दूर करो।

बिन शिव अब ये जीवन कैसा ,

मेरा यह संताप हरो।

 

(शिव जी सतासी हज़ार वर्ष की अपनी अखंड समाधी से राम नाम सुमरण करते हुए जागते हैं )

नेपथ्य –

सहस्त्र सतासी वर्ष हैं बीते ,

शिव जी जगे समाधि से।

आकुल सती प्रतीक्षा रत हैं ,

तारेंगे प्रभु व्याधि से।

 

राम नाम शिव सुमरण करते ,

सती ने दण्ड प्रणाम किया।

सन्मुख प्रभु ने उन्हें बिठाया ,

नहीं वाम स्थान दिया।

दूसरा दृश्य –

शिव जी सती को विभिन्न कथाओं का श्रवण करा कर उनके मन की ग्लानि और दुःख को दूर करने का प्रयत्न कर रहें उसी समय दक्ष के यज्ञ का निमंत्रण पाकर सभी देवता ,यक्ष ,किन्नर मुनि आदि प्रसन्नता पूर्वक अपने अपने विमानों और वाहनों से यज्ञ स्थल की ओर जा रहें हैं।

दक्ष प्रजापति सती पिता जो ,

ब्रह्मा जी के पुत्र हुए।

बने प्रजापतियों के नायक ,

योग्य दक्ष मन दम्भ पिए।

 

(दक्ष ने सभी इस अवसर पर एक महायज्ञ का आयोजन किया जिसमें सभी देवताओं ,ऋषि मुनियों ,गंधर्व किन्नर आदि समस्त कोटि को आमंत्रित किया )

 

दक्ष –

यज्ञ भाग जो भोगते हैं,

सुर प्रवर गंधर्व किन्नर।

हैं सभी सादर निमंत्रित ,

जो हमारे आत्म प्रियवर।

 

आइये सह पुण्य लेने ,

इस महत्तम यज्ञ का।

दक्ष, मैं यजमान निश्चित ,

इस प्रभा ब्रह्मज्ञ का।

 

नेपथ्य –

सब चले उस यज्ञ में ,

दक्ष का पाकर निमंत्रण।

सुर प्रवर मुनि यक्ष किन्नर ,

कर यथा शुभ मान चित्रण।

 

देख कर कैलाश ऊपर ,

सुर विमानों की गति।

नाचती यूँ अप्सराएँ ,

जो हरें सबकी मति।

 

सती -(कौतुहल में शिव से पूछती हैं )

 

कहाँ सब ये देव जाते ,

नाचतीं क्यों अप्सराएँ।

क्यों ये मंगल गीत गूँजे ,

आप प्रभु मुझको बताएँ।

 

शिव -(मुस्कुराते हुए सती से कहते हैं –

 

यज्ञ का आयोजन किया है ,

दक्ष जो बाबुल तुम्हारे।

यज्ञ में ही भाग लेने ,

जा रहे सुर प्रवर सारे।

 

नेपथ्य -सती यह सुन कर परम आनंदित हुई कि उनके पिता यह यज्ञ कर रहें हैं चूँकि सती पहले ही घोर अपराध एवं आत्मग्लानि से भरी हुई थीं।

 

हुआ सती मन अति आनंदित ,

जब यह शुभ संदेश सुना।

सकुच रहा मन प्रभु से कहने ,

अंदर मन संताप घना।

 

अति आकुल थी सती सयानी ,

बाबुल के घर जाने को।

इस संताप दुखी मन में ,

नेह पिता का पाने को।

 

सती -(अपने मन में पूरी हिम्मत भर कर संकोचित स्वर में शिव से पूछतीं हैं )-

 

उत्सव के पावन अवसर पर ,

आज्ञा प्रभु यदि मैं पाऊँ।

हे कृपाधाम यदि हो समुचित तो ,

मात -पिता घर मैं जाऊँ।

 

शिव -(गम्भीर स्वर में )-

हे दक्ष सुता निज बैर के कारण ,

नहीं निमंत्रण तुम्हें दिया।

सभी भगनियाँ हुईं निमंत्रित ,

मात्र तुम्हारा त्याग किया।

 

ब्रह्म सभा से क्रुद्ध दक्ष हैं ,

मन में मुझसे बैर धरें।

कुपित पिता मुझसे हैं भारी ,

नित मेरा अपमान करें।

 

बिना निमंत्रण यदि जाओगी ,

शील नेह सब टूटेंगे।

भंग मान मर्यादा होगी ,

सारे रिश्ते छूटेंगे।

 

यद्यपि स्वामी मित्र पिता गुरु ,

करते चूक बुलाने में।

नहीं दोष कोई लगता है ,

इन सब के घर जाने में।

 

पर विरोध कोई करता हो ,

स्वजन भले ही कितना हो।

बिना बुलाये मत जाओ घर

चाहे कितना अपना हो।

 

नेपथ्य -(शिव जी ने सती को बहुत समझाया किन्तु स्त्री मन जो बहुत व्यथित था अपने स्वजनों से मिलने की उत्कंठा ,उनसे संवेदना पाने की लालसा से शिव के ज्ञान को ग्रहण नहीं कर पा रहा था। )

 

सती -विनय पूर्वक शिव से बोलीं –

 

हे प्रभु मन मेरा व्यथित है ,

मात से मिलना जरुरी।

अब सहन होती नहीं है ,

भगनियों से मन की दूरी।

 

क्रुद्ध हैं पर हैं जनक वो

उनकी मैं प्यारी सुता

भूल कर सब बैर बातें

नेह बाटेंगे पिता।

 

क्या निमंत्रण क्या बुलावा

जब पिता घर यज्ञ हो।

सुता का जाना जरुरी

आपको यह विज्ञ हो।

 

मैं लडूँगी खूब उनसे

आपके अपमान पर।

आँच आने नहीं दूँगी

आपके सम्मान पर।

 

नेपथ्य –

हे विधाता भी विवश

प्रारब्ध के इस खेल पर

सती निश्चय कर चुकी थीं

मायके से मेल पर।

 

जब सती मानी नहीं तो

शिव विवश स्तब्ध थे।

बहुत रोका रूद्र ने पर

सामने प्रारब्ध थे।

 

सब गणों को साथ लेकर

सती पितु गृह चली।

बहुत रोका रूद्र ने पर

होनी देखो न टली।

 

तीसरा दृश्य –

सती अपने पिता के घर पहुँचती हैं माता बड़े प्रेम से मिली , बहिनों ने मुस्कुरा कर स्वागत किया ,किन्तु अन्य परिजनों ने दक्ष के कारण सती से दूरी बनाये रखी ,दक्ष सती को देख कर अत्यंत क्रोधित हो गए।

 

नेपथ्य –

माता मिली अति प्रेम से

आदर किया सत्कार से।

मुस्कुरा कर मिलीं बहिनें

नेह भर आभार से।

 

थे स्वजन सब दूर उनसे

डर रहे थे दक्ष से।

दक्ष मन था क्रोध भारी

आग निकली वक्ष से।

 

देख करके निज सुता को

दक्ष मुख अभिमान था।

सती ने देखा चतुर्दिश

शिव का बस अपमान था।

 

यज्ञ में देखा चतुर्दिश

सब के आसन भाग शोभित।

नहीं था बस शिव का आसन

सती मन हुई क्रोधित।

 

देख कर अपमान शिव का

क्रोध में थी अपर्णा।

क्रुद्ध होकर उस सभा में

सती ने की फिर गर्जना।

 

सती-(दक्ष से )

 

हो जनक तुम दक्ष मेरे

मैं तुम्हारी हूँ सुता

यज्ञ से क्यों शिव हैं वंचित

पूछती हूँ हे पिता।

 

क्यों नहीं हैं रूद्र आसन

जो यज्ञ के अवतार हैं।

किया क्यों अपमान उनका

जो जगत आधार हैं।

 

शिव को क्या तुमने है समझा

मानवी व्यक्तित्व का।

शिव ही ऊर्जा स्त्रोत है

आपके अस्तित्व का।

 

सती -(विष्णु से )

आप हो प्रिय भ्रात मेरे

आप हो शिव के सखा।

बिना शिव के यज्ञ में

क्यों आपका ये मुख दिखा।

 

सती -(ब्रह्मा जी से )

देख कर ये सब पितामह

आप क्यों अनजान हैं।

आपके ही सामने क्यों

शिव का यूँ अपमान है।

 

अब समझ में मेरी आया

आपका ये प्रतिशोध है।

एक सिर जो शिव ने काटा

यही बस विरोध है।

 

सती (इंद्र से )-

क्या अपरिचित इंद्र तुम हो

रूद्र के प्रतिशोध से।

भस्म होकर जब गिरा था

वज्र शिव के क्रोध से।

 

सती (ऋषि मुनियों से )-

 

हो सभी वेदों के ज्ञाता

ज्ञान से भरपूर हो।

दक्ष का भय मन में भर कर

शिव से क्यों तुम दूर हो।

 

क्या नहीं है ज्ञान तुमको

यज्ञ है शिव बिन अधूरा।

त्याग कर शिव भाग को

कैसे होगा यज्ञ पूरा।

 

दक्ष (सती से )-

सुन सती अब तू चली जा

क्रोध मेरा मत बढ़ा।

बिन निमंत्रण क्यों तू आई

शिव की ये मदिरा चढ़ा।

 

वेदों ने शिव को त्यागा है

रूद्र अमंगलकारी है

भूत -प्रेत सँग रहने वाला

नंग धड़ंग भिखारी है।

 

मात्र पितामह की आज्ञा से

तेरा कन्या दान किया।

उसी दिवस इस दक्ष पिता ने

मन से तुझको त्याग दिया।

 

सती (क्रोधित होकर भरी सभा में गर्जना करती है )

 

दक्ष सुन ले सभा सुन ले

पिता मह ,विष्णु सुनो।

जगत सुन ले ,सृष्टि सुन ले

यज्ञ के देवो सुनो।

 

शिव की निंदा जो करेगा

वो नरक में जाएगा।

शिव विरोधी जो भी होगा

अंत में पछतायेगा।

 

विष्णु ,गुरु ,शिव ,संत सबकी

जो भी निंदा को सुने।

या तो निंदक मार डाले

या स्वयं मृत्यु चुने।

 

 

पाप मुझको भी लगेगा

मैंने शिव निंदा सुनी।

रूद्र का अपमान भारी

सुनके मृत्यु है चुनी।

 

शिव की निंदा जिसने की है

दुष्ट दुर्गम हार पर है।

दंड का भागी सुनिश्चित

मृत्यु उसके द्वार पर है।

 

दक्ष जो अति दुष्ट, मानी

दुर्भाग्य से मेरा पिता है।

मृत्यु तेरी अति निकट अब

त्यागती तुझको सुता है।

 

वीर्य दक्ष से है ये निर्मित

मेरी अधम अभागी काया।

आज अग्नि को देह समर्पित

करने का वह समय है आया।

 

 

तृतीय दृश्य -सती ने शिव को स्मरण कर उत्तर दिशा की ओर मुंह करके बैठकर योग अवस्था में प्रवेश किया। प्राण और अपान वायु को संतुलित करते हुए, उन्होंने उदान वायु को नाभि से उठाया और इसे हृदय और गले के क्षेत्र से ले जाते हुए, अंत में भौंहों के बीच स्थापित किया। उस योग अवस्था में उन्होंने अपने शरीर को जलाकर राख कर दिया।

नेपथ्य-

रूद्र ,शिव का जाप करके

योग मुद्रा में सती।

मुख रखे उत्तर दिशा में

ध्यान में शिव श्रीमती।

 

प्राण ,अपान उदान वायु

नाभि से ऊपर करीं।

भृकुटि के फिर मध्य में

योग ज्वालाएँ धरीं ।

 

दृश्य चार -भगवान शिव के सेवक (जो प्रवेश द्वार पर प्रतीक्षा कर रहे थे) भयभीत और दुःखी हो गए। उनमें से कई ने देवी सती के साथ अपना जीवन समाप्त कर लिया। कुछ ने अपने हथियारों से उनके अंग काट दिये। कुछ ने क्रोध में आकर दक्ष पर आक्रमण कर दिया। नारद वहाँ आये और उन्हें यज्ञ में घटी घटनाओं के बारे में बताया।यज्ञ का प्रसंग सुनकर भगवान शिव क्रोधित हो गये,भगवान शिव ने क्रोध में आकर वीरभद्र और महाकाली की रचना की:

नेपथ्य –

आग धधकी योग की जब

सती का तन पूरा जला।

मात ,भगनी चीखतीं सब

कोई बचाओ तो भला।

 

सभा में था शोर भारी

भय से मुखड़े थे सने।

गणों ने जब दृश्य देखा

क्रोध में थे सब घने।

 

क्रोध में भर शिव गणों ने

किया फिर उत्पात भारी।

दक्ष की सेना को मारा

यञशाला फिर उजारी।

 

सुनके नारद से कहानी

क्रोध में शिव रूद्र थे।

अति भयानक रूप धारे

शांत शंकर भद्र थे।

 

फिर उखाड़ी जटा सिर से

हाथ में ले मालिका

किये फिर उत्पन्न दोनों

वीर भद्र कपालिका।

 

यज्ञ का विध्वंस करने

बढ़ चले थे वीर ,काली।

वीर के कर थे हज़ारों

कालिका थी मुण्डमाली।

 

थे भयानक भूत संगी

प्रेत गण पिशाच थे।

क्रूर कोलाहल विकट था

शिव मशानी नाच थे।

 

पंचम दृश्य –

(वीरभद्र ,कालिका एवं गणों ने यज्ञ का विध्वंस कर दक्ष का सिर धड़ से अलग कर दिया )

 

वीर भद्र सँग जब काली ने

यज्ञ ध्वंस -विध्वंस किया।

दक्ष की सारी सेना मारी

दक्ष को रण में घेर लिया।

 

फिर त्रिशूल को भद्र ने मारा

पत्थर जैसी काया थी।

कटा नहीं सिर दक्ष का फिर भी

वरदानों की छाया थी।

 

वीर चढ़ा फिर दक्ष की छाती

क्रोध में वह मतवाला था।

धड़ से मस्तक अलग किया था

फिर वेदी में डाला था।

 

छटवां दृश्य -सभी देवता भगवान शिव की स्तुति कर रहें हैं।

 

हे शिव शंकर हे करुणा कर हे प्रभु आप कृपालु अहो।

काल महा शिव शंभु सदा शिव आप सदा मम ध्यान रहो।।

कंठ हलाहल गंग चढ़ीं सिर आप नमामि नमामि महो।

आदि अनंत अनामय तांडव पाप निवार गुहार गहो।।

 

दिव्य मनोहर शम्भु शिवाकर शाश्वत सत्य सनातन हो।

गोचर अर्द महा महते प्रभु आप महामन भावन हो।।

ओम महातप मंत्र महा जप भूत भविष्य महाहन हो।

कर्म निकंदन भाव विभंजन गूढ़ गुहाय सनंदन हो।।

 

पाप विनाशक सर्व सहायक बंध विमोचक पाप हरे।

हे वरदायक हे सुखकारक घोर अघोरक पुण्य भरे।।

वेदविहारक कष्ट निवारक जीवन का भव पार करे।

देव सुपूजित वंश विभावर जीव प्रभावर आत्म धरे।।

 

(शिव प्रसन्न होकर वरदान देते हैं एवं दक्ष के धड़ पर बकरे का सिर लगा कर उसे जीवन दान देते हैं )

पटाक्षेप—

काव्यानुवाद -सुशील शर्मा

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