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May 20, 2024
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परशुराम -लक्ष्मण संवाद  (काव्य नाटिका ) पात्र -जनक ,विश्वामित्र ,परशुराम ,लक्ष्मण ,राम एवं अन्य 

परशुराम -लक्ष्मण संवाद 

(काव्य नाटिका )

पात्र -जनक ,विश्वामित्र ,परशुराम ,लक्ष्मण ,राम एवं अन्य 

दृश्य -जैसे ही सीता ने राम के गले में वरमाला डाली ,राजाओं में खलबली मची थी उनको लगा कि इन बालकों ने उनके पुरुषत्व को ललकारा है अतः सभी इसी घात में थे कि इन बालकों से युद्ध कर सीता को बंदी बना कर बलपूर्वक यहाँ से ले जाय जाए ,सभी ऋषि मुनियों ने उनको समझाया कि रराम लक्ष्मण से बैर ठीक नहीं है जिस प्रकार धनुष यज्ञ में तुम्हारा मार मर्दन हुआ है युद्ध में भी तुम राम लक्ष्मण से परास्त हो जाओगे। उसी समय भगवन शंकर के शिष्य विप्र कुल भूषण परशुराम उस यज्ञ शाळा में आते हैं।

 

नेपथ्य –

शिव पिनाक का ध्वंस श्रवण कर

भृगुकुल तिलक पधारे थे।

बाज से ज्यों बटेर छुप जाए

सब राजा डर मारे थे।

 

बृषभ समान कंध भृगु वर के

बाहु ,उर विशाल भगवंता।

कंठ माल यज्ञोपवीत है

धनुष बाण कुठार कर कंता।

 

शांत वेश,मुनि वल्कल पहने

भृगुमणि सभा में यूँ आये

निर्भय अचल अमोघ चाल से

ज्यों केहरि वन में जाए।

 

एक एक कर सब राजाओं ने

अपना परिचय आप दिया।

अपने नाम के साथ सभी ने

अपने पिता का नाम लिया।

 

(राजा जनक ने सीता को बुला कर परशुराम को प्रणाम कराया ,परशुराम ने सीता को आशीर्वाद दिया ,उसी समय विश्वामित्र राम और लक्ष्मण के साथ परशुराम के पास आये राम एवं लक्ष्मण दोनों ने परिश्रम को साष्टांग प्रणाम किया ,जनक जी ने परशुराम की प्रार्थना की। )

 

जनक

 

शोभित कुठार हाथ

तेजस्वी धनुष साथ

शोभित त्रिपुण्ड माथ

शूरता अदम्य है।

 

गौर वर्ण ,नेत्र लाल

तेजपुँज भर कपाल

कंठ शुद्ध रूद्र माल

विप्र अग्रगण्य हैं।

 

विप्र वंश कर्णधार

तीक्ष्णतम परशु धार

बैरी दल क्षार क्षार

प्रभु आप अगम्य हैं।

 

 

अहो विप्र परशुराम

साधना अति प्रकाम

कीर्तिपुंज भृगुराम

आप अति प्रणम्य हैं।

 

विश्वामित्र (परशुराम से )-

राजा दशरथ के सुत दोनों

राम लक्ष्मण नाम हैं।

प्रभु आशीष इन्हे भी देना

शूर वीर अविराम हैं।

 

परशुराम –

 

दीर्घायु हों दोनों भाई

सारे काज हों पूर्ण सफल।

जनकराज तुम मुझे बताओ

कैसा है ये कोलाहल।

 

जनक –

सीता का था रचा स्वयंबर

इस हेतु सब राजा आये।

जो पिनाक को तोड़ सके प्रभु

वह सीता का पति कहलाये।

 

नेपथ्य –

जनक वचन सुन परशुराम ने

यज्ञ मंच को जब देखा।

टूटा हुआ पिनाक देख कर

खिंची ललाट क्रोध रेखा।

 

परशुराम –

रे खल मूरख जनक बता तूँ

किसने शिव धनु को तोड़ा ।

किसने यह दुःसाहस करके

मृत्यु को निज मुख मोड़ा।

 

रे शठ मूरख जनक बोल तूँ

मृत्यु दण्ड उसको दूँगा।

तेरे राज की पूर्ण धरा को

उल्ट पलट कर रख दूँगा।

 

जिसने मेरे गुरु के धनु को

दो भागों में तोड़ा है।

उसके तन के टुकड़े कर दूँ

काल को जिसने मोड़ा है।

 

कौन वो राजा यज्ञ सभा में

जिसने यह दुष्कर्म किया।

जनक तूँ उसका नाम बता दे

जिसने प्याला मृत्यु पिया।

 

नेपथ्य –

जनक मौन थे अंतस भय था

मन में चिंता थी भारी।

डरी सुनयना देव डरे सब

डरी यज्ञ शाला सारी।

 

भय में जब सीता को देखा

भय में यज्ञ सभा सारी।

निर्भय अटल विनीत वचन कह

रघुनायक प्रभु अवतारी।

 

राम –

दास आपका ही होगा प्रभु

जिसने धनु को तोड़ा है।

होगा प्रभु चरणों का सेवक

काल को जिसने मोड़ा है।

 

परशुराम –

लगा कर कान सुनले

सुन राम सुन ले

सेवक का यह काम नहीं है ।

जिसने भी इस

धनुष को तोड़ा

समझो उसमें प्राण नहीं है।

 

आज उसने तोड़ शिव धनु

मृत्यु का प्याला पिया है।

है शत्रु सम वह नर नराधम

कर्म ये जिसने किया है ।

 

है शत्रु मेरा

वह नराधम

जिसने धनुष भंजन किया।

है सहसबाहू सम शत्रु मेरा

जिसने यह दुष्कर्म

किया।

 

सभी नृप जो यहाँ बैठे

मृत्यु के घेरे में है।

सब मरेंगे अब यहाँ पर

काल के डेरे में हैं।

 

इस सभा में से

निकल कर

क्यों नहीं आता है वह।

देख कर यह परशु मेरा

मन में क्या

घबराता है वह।

 

लक्ष्मण –

धनुष बहुत से बचपन में

खेल खेल में भंज किये।

क्या विशेष इस धनु पिनाक में

जो मुनि इतना रंज किये।

 

परशुराम (क्रोध में )-

सुन तू ओ राजा के बालक

वचन सम्हाल न तू बोले।

गुरु शंकर के इस पिनाक को

साधारण धनुहि से तौले।

 

सुन दुर्बुद्धि ओ नृप बालक

काल को क्यों न्यौता देता।

अशुभ वचन मुख से निकाल कर

क्यों मृत्यु मस्तक लेता।

 

लक्ष्मण –

धनुष सभी प्रभु हम सम मानें

क्यों प्रभु क्रोधित होते हो।

इस प्राचीन धनु पिनाक पर

क्यों प्रभु आपा खोते हो।

 

छूते ही श्री प्रभु रघुवर के

यह पिनाक झट भंज हुआ।

राघव का कोई दोष नहीं है

क्यों भृगु मणि को रंज हुआ।

 

परशुराम –

वध नहीं करता तेरा शठ

जानकर बालक तुझे।

व्यर्थ का प्रलाप कर के

कर रहा क्रोधित मुझे।

 

क्या सरल मुनि तू समझता

क्या मुझे तू जानता।

ब्रह्मचारी शत्रु हन्ता

क्या मुझे पहचानता।

 

क्षत्रिय कुल का मैं हूँ हन्ता

शक्ति का आघात हूँ।

सहसबाहु का भुजा विदारक

मैं क्रोधी विख्यात हूँ।

 

अपनी इन्हीं भुजाओं के बल

शत्रु ग्रीवा काटी हैं।

क्षत्रिय कुल को नष्ट किया है

धरा विप्र में बाँटी है।

 

सहसबाहु की भुजा काटने

वाले इस कुठार को देख।

क्यों अपने मस्तक पर लिखता

कठिन कुठार मृत्यु अभिलेख।

 

बड़ा भयानक यह कुठार है

गर्भ नष्ट कर देता है।

जो भी शत्रु सम्मुख आये

मृत्यु अंक भर लेता है।

 

लक्ष्मण (हँसते हुए )-

माना बड़े वीर मुनि ज्ञानी

योद्धा होंगें आप अटल।

बार बार प्रभु परशु दिखा कर

फूँक उड़ाते मेरु अचल।

 

इतनी बात आप भी जानों

हम भी रखते बाहुबल।

देख तर्जनी जो मर जाएँ

नहीं हैं हम कुम्हड़ा के फल।

 

देख जनेऊ विप्र भृगु वंशी

क्रोध न मैं मन में भरता।

देव ,विप्र, भगवान, भक्त, गौ

इन पर क्रोध नहीं करता।

 

यदि हम इनको संहारे तो

पुण्य नष्ट सब होतें हैं।

यदि हम क्षत्रिय होकर हारें

अपयश को हम ढोते हैं।

 

अतः आप यदि हमको मारें

तब भी प्रणाम हम करते हैं

वचन आपके वज्र सदिश हैं

व्यर्थ परशु धनु धरते हैं।

 

परशुराम (विश्वमित्र से )-

 

है कुबुद्धि अति कुटिल यह

बालक अति उदण्ड।

कुल घाती यह बन रहा

मिलेगा मृत्युदंड।

 

नहीं दोष देना मुझे

सुनलो विश्वामित्र।

कुल कलंक यह वंश का

इसका कुटिल चरित्र।

 

यदि बचाना चाहते

तुम सब इसके प्राण।

इसकी जिह्वा बंद हो

इसमें ही कल्याण।

 

शौर्य प्रताप क्रोध को मेरे

यह अच्छे से जान ले।

नहीं तो इसके प्राण हरूँगा

सभा सत्य ये मान ले।

 

लक्ष्मण –

अपने मुँह अपनी ही बातें

अपना सुयश बखान करें।

कितनी बार सुना है हमने

स्वयं कीर्ति गान करें।

 

यदि संतोष नहीं है मन में

क्रोध को अब मत टोकिये

आप वीर मन क्षोभरहित हैं

अपशब्दों को रोकिए।

 

शूरवीर जो असली होते

अपने न गुणगान करें।

करें कर्म वीरों के रण में

अस्त्रों का संधान करें।

 

परशुराम –

 

नहीं बचेगा अब यह बालक

मरने पर यह आया है।

बहुत बचाया मैंने इसको

मस्तक काल समाया है।

 

विश्वामित्र –

यह छोटा सा नन्हा बालक

मुनिवर आप दयालु हैं

सब अपराध क्षमा हों इसके

भृगुमणि आप कृपालु हैं।

 

परशुराम –

विश्वामित्र तुम्हारे कारण

इस बालक में प्राण बचे।

हाथ में मेरे परशु विकट है

क्यों यह मृत्यु स्वयं रचे।

 

हाथ कुठार विकट है मेरे

सम्मुख गुरु का द्रोही है।

फिर भी यह अबतक जीवित है

कपटी वंश विछोही है।

 

विश्वामित्र (मन ही मन में )

राम लखन को परशुराम ने

साधारण क्षत्रिय माना।

हरा हरा ही सूझ रहा है

भेद न इनका है जाना।

 

लोह खड्ग श्री राम लखन हैं

जो शत्रु की हैं घाती।

नहीं ईख की खड्ग हैं दोनों

जो मुंह में जा घुल जाती।

 

लक्ष्मण –

कौन आपक शील न जाने

जाने यह दुनिया सारी।

मातु-पिता के ऋण से ऊरन

गुरु का ऋण अब है भारी।

 

यह ऋण अब हम सबके माथे

ब्याज भी इसका भारी है।

ब्याज सहित हम इसे चुकाएँ

मेरी सब तैयारी है।

(क्रोध में परशुराम फरसा सम्हाल कर लक्ष्मण की ओर बढ़ते हैं। )

 

हे भृगुश्रेष्ठ परशु ले कर में

क्यों अपना आपा खोते।

मैं भी कर में अस्त्र उठाता

विप्र न यदि भृगुवर होते।

 

नहीं वीर से अबतक भृगुवर

पड़ा आपका पाला है।

घर में अब तक श्रेष्ठ रहे हो

भले ही परशु निराला है।

 

(लक्ष्मणजी के उत्तर से, परशुरामजी के क्रोध रूपी अग्नि को बढ़ते देखकर रघुकुल के सूर्य श्री रामचंद्रजी जल के समान (शांत करने वाले) वचन बोले)

राम –

हे प्रभु यदि यह जानता

आपकी महिमा प्रबल।

करता क्या दुःसाहस

देख आपका अतुलित बल।

 

यह दुधमुँहा सा नन्हा बालक

इस पर क्रोध न कीजिये।

इसने व्यर्थ प्रलाप किया है

उस पर ध्यान न दीजिये।

 

महा प्रतापी भृगुकुल ब्राह्मण

आप जगत विख्यात हैं।

समदर्शी सुशील मुनि ज्ञानी

ये गुण सबको ज्ञात हैं।

 

(रामचंद्रजी के वचन सुनकर परशुराम कुछ ठंडे पड़े। इतने में लक्ष्मणजी कुछ कहकर फिर मुस्कुरा दिए। उनको हँसते देखकर परशुरामजी के नख से शिखा तक (सारे शरीर में) क्रोध छा गया। )

परशुराम –

 

तन से गोरा हृदय से काला

तेरा भाई पापी है।

यह दुधमुँहा नहीं है बालक

यह टेढ़ा विष व्यापी है।

 

लक्ष्मण (हँसते हुए )

 

क्रोध पाप का मूल है स्वामी

मनुज हृदय जब ये भरता है।

हित अनहित न फिर वह देखे

अनुचित कर्म मनुज करता है।

 

मैं तो हूँ बस दास आपका

मुनिवर त्याग क्रोध का कीजे।

क्रोध से धनुष न जुड़ने वाला

पैर दुखें तो आसन लीजे।

 

यदि यह धनुष आपको प्रिय है

तो फिर निपुण बढ़ई बुलवाएं।

इस टूटे हुए पिनाक के

दोनों टुकड़ों को जुड़वाएँ।

 

जनक (लक्ष्मण से )-

सुनो कुमार आप चुप रहना

मुनिवर यहाँ पधारे हैं।

व्यर्थ प्रलाप आप मत कीजे

अनुचित वचन तुम्हारें हैं।

 

नेपथ्य –

जनक पूरी के सब नर नारी

भय से थर-थर काँप रहे।

यह खोटा छोटा कुमार है

कह देवों को जाप रहे।

 

परशुराम (रामचंद्र से )-

बड़ा कुटिल है तेरा भाई

ज्यों सोने के घट हाला।

तेरे कारण यह जीवित है

इसका हृदय बड़ा काला।

 

रामचंद्र –

नाथ आप गुण शील विनायक

वह बालक नादान है।

उसकी बात अनसुना करिये

वह अनभिज्ञ सुजान है।

 

कृपा क्रोध वध बंधन मुनिवर

मुझ अपराधी पर करिये

मैं तो हूँ बस दास आपका

अपनी क्रोधाग्नि हरिये।

 

परशुराम (लक्ष्मण को क्रोध से देखते हुए )-

 

मेरा क्रोध शांत हो कैसे

देखो कैसे घूर रहा।

चले कुठार कंठ पर इसके

मृत्यु से क्यों यह दूर रहा।

 

जिस कुठार की करनी सुनकर

गर्भ स्त्रियों के गिरते।

मेरा यह शत्रु क्यों जीवित

मुख से व्यंगबाण झरते।

 

लक्ष्मण (हँसते हए व्यंग से )-

 

हे मुनिवर जब आप बोलते

मानो फूल के हों गहना।

कृपा आप की यदि ऐसी है

क्रोध आपका क्या कहना।

 

परशुराम (जनक से )-

 

मृत्यु नाचती है मस्तक पर

क्यों सम्मुख यह मेरे है।

अरे जनक तू इसे हटाले

काल इसे अब घेरे है।

 

परशुराम (रामचन्द्र से )-

रे शठ राम तू ज्ञान सिखाता

तू शिव का अपराधी है।

धनुष तोड़ कर ज्ञान बाँटता

कैसी शिक्षा साधी है।

 

तूँ करता है विनय बहोरी

तेरा भ्राता कटु बोले।

या तू अपना नाम बदल ले

या रण सम्मुख तूँ हो ले।

 

ओ शिव द्रोही रामचंद्र सुन

युद्ध करो सम्मुख होकर।

भ्राता सँग तेरा वध कर दूँगा

वरना मैं आपा खो कर।

 

रामचंद्र –

क्रोध त्याग कर हे मुनि ध्यानी

कृपा दया उपरांत करो।

यह मस्तक प्रस्तुत है स्वामी

क्रोध को अपने शांत करो।

 

इस बालक ने वचन कहे कुछ

देख भेष वीरों जैसा।

मैं सेवक प्रभु तुम स्वामी हो

मध्य हमारे रण कैसा।

 

धनुष बाण कर परशु देख कर

लखन नहीं समझ पाया।

उसने रघुवंशी स्वभाव बस

कहा जो मन में भर आया।

 

मुनि का भेष लिए यदि होते

नहीं धृष्टता वह करता।

मुनि चरणों में शीश नवा कर

पद रज मस्तक पर धरता।

 

नहीं बराबर प्रभु हम दोनों

मस्तक तुम चरणों में हम।

राम नाम अति लघु है मेरा

परशु सहित राम हो तुम।

 

धनुष मात्र यह पास हमारे

नवगुण ज्ञान तुम्हारे हैं।

विप्रों के हम चरणदास हैं

विजयी तुम हम हारे हैं।

 

परशुराम (क्रोध में भर कर )

 

निरा ब्राह्मण तूने समझा

बुद्धि अविकसित राम है तेरी।

धनुष श्रुवा है ,बाण आहुति

क्रोध अग्नि की ज्वाला मेरी।

 

चतुरंगी सेना समिधाएँ

राजा सब बलि स्यूत हुए।

रण यज्ञों में मस्तक कट कर

स्वाहा भस्मीभूत हुए।

 

एक धनुष क्या तोड़ा तूने

मन में तू अभिमान भरे।

विप्र सरल सा समझ के मुझको

मेरा तू अपमान करे।

 

रामचंद्र –

क्रोध आपका अति भारी है

भूल राम की छोटी है।

क्रोध आपका मस्तक पर है

मेरी किस्मत खोटी है।

 

नहीं घमंड हृदय में मेरे

जो था वो सब छूट गया।

हाथ लगाने से प्रभु मेरे

धनुष पुराना टूट गया।

 

नहीं नवाते रघुवंशी सिर

चाहे काल सामने आये।

हे भृगुनाथ सत्य कहता हूँ

विप्र पदों में शीश नवाये।

 

चाहे बल में रहें बराबर ,

चाहे अति बलवान हों ।

रघुवंशी रण से न हटते ,

चाहे जाते प्राण हों।

 

देव दनुज नर ईश भले हो

चाहे मृत्यु जाल हो।

अंतिम क्षण तक लड़ें समर में

चाहे सम्मुख काल हो।

 

विप्रों का आशीष मिले तो

काल विजय नर पाता है।

विप्रों से जो भी डरता है

वह निर्भय हो जाता है।

 

नेपथ्य –

तभी अचानक भृगुकुल मणि के

बुद्धि सुमति कपट खुले।

सुनकर कोमल वचन राम के

मन के सारे मैल धुले।

 

परशुराम –

हे राम हे लक्ष्मीपति प्रभु

यह धनुष हाथ में लीजिये।

मेरा मन संदेह दूर हो

प्रभु ऐसा कुछ कीजिये।

 

नेपथ्य –

धनुष स्वयं उठ करके आया

कर में प्रभु ने थाम लिया

प्रत्यन्चा पर शर को रख कर

संशय को विश्राम दिया।

 

(परशुराम श्री राम की प्रार्थना करते हैं )

रघुकुल तिलक आपकी जय हो

आप वीरता के प्रतिमान

रघुमणि सूर्य आप बलशाली

आप धीरता का सम्मान।

गौ ब्राह्मण देवों के रक्षक

आप शौर्य बल के अधिमान।

मोह क्रोध मद हरने वाले

आप शीलता के दिनमान।

विनय शील वाणी मोहक है

आप दिव्यता के श्रीमान।

सौ अनंग सुंदरता धारे

आप सौम्यता के उपमान।

मान सरोवर शिव कैलाशी

आप हंस उनके आयान।

अनुचित वचन कहे प्रभु मैंने

क्षमा करो प्रभु सेवक जान।

 (पटाक्षेप )

काव्यानुवाद -सुशील शर्मा

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