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May 9, 2024
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पाप वीरस्य आभूषणम् मुनि श्री निरंजन सागर जी महाराज

पाप वीरस्य आभूषणम् मुनि श्री निरंजन सागर जी महाराज
कुंडलपुर।जो नरक आदि दुर्गति से नहीं डरता ।जो दुख रूपी संसार से भयभीत नहीं होता। जो कर्म व्यवस्था को नहीं समझता। जो देव गुरु और शास्त्रों की बातों को नहीं, सुनता ऐसा निडर, निर्भय वीर ही पाप को अपना आभूषण मानता है। पाप आत्मा की रक्षा करता है पर किससे ?तो आचार्य कहते हैं पुण्य से। अर्थात पापी व्यक्ति अपने जीवन में सदैव पुण्य कार्यों से बचता रहता है। जो आत्मा को पवित्र करता है या जिससे आत्मा पवित्र होता है वह पुण्य है। जो नरक आदि दुर्गति से डरता है ,जो दुख रूपी संसार से सदा भयभीत रहता है, जो कर्म व्यवस्था को समझता है ,जो देवगुरु और शास्त्रों की बातों को सुनता है, उन पर श्रद्धा करता है, उनको आचरण में उतारता है ,ऐसा कमजोर कायर डरपोक भयभीत व्यक्ति ही साधुता को अपनाता है। पाप पतन का और पुण्य उत्थान का द्योतक है। आचार्यों ने पाप से डरने का, संसार से डरने का, दुर्गति से डरने का, उपदेश दिया है। ना कि पुण्य से डरने का। हिंसा ,झूठ ,चोरी कुशील और परिग्रह ये 5 पाप के मुख्य भेद हैं। इनके विपरीत अहिंसा, सत्य ,अचोर्य,ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह यह पुण्य के पांच भेद मुख्य रूप से आचार्यों ने कहे हैं। इन सभी में मुख्य है परिणाम अर्थात भाव ।आप जो भी कार्य कर रहे हैं उसके सही गलत का निर्धारण भावों पर आधारित होता है ।आप अपने कार्यों के माध्यम से पूरी दुनिया के सामने ऐसा प्रदर्शन करना चाहते हैं कि मुझसे बड़ा धर्मात्मा मुझसे बड़ा भक्त मुझसे बड़ा पुण्य आत्मा ना भूतो ना भविष्यति ।परंतु अगर आप का उपयोग आपका उद्देश्य सही नहीं है तो आपका वह कार्य मात्र लौकिक ख्याति पूजा और लाभ तक ही सीमित रह सकता है। उस के माध्यम से आपकी आत्मा का कल्याण त्रिकाल असंभव है। रावण भी वीर था ,भगवान का भक्त था परंतु उसके उद्देश्य ने उसे दुर्गति का पात्र बना दिया ।हमें हमारे जीवन में किसे आदर्श बनाना है राम को या रावण को। राम पाप से डरते थे ,अधर्म से डरते थे इसलिए सभी राम को पसंद करते हैं ।उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम कहते हैं ।अपने जीवन का आदर्श पुरुष मानते हैं। आचार्यों ने भावों की प्रधानता को महत्व दिया है ।आचार्य कहते हैं त्रस्मात क्रिया प्रतिफन्ति न भाव शून्या अर्थात धर्म भाव से शून्य क्रियाये कभी भी सफलता को प्राप्त नहीं होती ।एक भक्ति रावण नेकी और एक भक्ति राम ने की दोनों के जैसे भाव थे जैसे परिणाम थे वैसा ही परिणाम अर्थात फल सभी को देखने जानने को मिला ।हम सभी को आचार्यों की वाणी पर दृढ़ श्रद्धान रखते हुए पाप से बचने का और पुण्य करने का भरसक प्रयास करना चाहिए ।जो पाप से डरता है वही सही मायने में वीर कहलाता है ।जिसके हृदय में करुणा का दया का नीर है ऐसा ही व्यक्तित्व आज महावीर है।

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